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________________ भगवतीसूत्र में बन्धन कारणों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "जीव, प्रमाद एवं योग के निमित्त से कर्मों को बाँधता हैं।' प्रज्ञापनासूत्र में कर्मबन्ध के प्रमुख कारणों का विस्तृत उल्लेख है। सर्वप्रथम उसमें बन्धन के दो कारण राग-एवं द्वेष बताये हैं। तदनन्तर राग के माया एवं लोभ एवं द्वेष के क्रोध और मान ऐसे दो उपभेद किये हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में राग एवं द्वेष को ही कर्मबन्धन का मूल बीज कहा गया है।' प्रवचनसार में बताया है कि - जिस जिस भाव से जीव विषयगत पदार्थ को देखता है, जानता है, उसी भाव (अध्यवसाय) के कारण वह विकारभाव को प्राप्त होता है, उसी से उसके शुभ-अशुभ कर्मबन्ध होता है। . समयसार में बताया है कि - रागादि परिणाम से विशिष्ट जीव ही कर्मों का बन्ध करता है। इस तरह मूल रूप से बन्धन का कारण आश्रव है। आश्रव शब्द क्लेश या मल का बोधक है। क्लेश या मल ही कर्मवर्गणा के पुद्गलों को आत्मा के सम्पर्क में आने का कारण है। इसका अर्थ यह हुआ कि कर्मवर्गणाओं काआत्मा में आना आश्रव है। आश्रव के दो भेद है - भावाश्रव और द्रव्याश्रव। आत्मा की विकारी मनोदशा भावाश्रव और कर्मवर्गणाओं के आत्मा में आने की प्रक्रिया द्रव्याश्रव है। इस प्रकार भावाश्रव कारण है और द्रव्याश्रव कार्य या प्रक्रिया है। द्रव्याश्रव का कारण भावाश्रव है, लेकिन यह भावात्मक परिवर्तन भी अकारण नहीं है, वरन् पूर्वबद्ध कर्म के कारण होता है। इस प्रकार पूर्वबद्ध कर्म के कारण भावाश्रव और भावाश्रव से द्रव्याश्रव और द्रव्याश्रव से कर्म का बन्धन होता है। 'भगवतीसूत्र 1/3/27 2 "दोहि ठाणेहिं - तंजहा- रागे य दोसे य, रागे दुविहे पण्णते माया य लोभे य, दोसे दुविहे-कोहे माणं", प्रज्ञापना - 23/6 3 "रागो य दासो विय कम्मबीयं". उत्तरा. प्र.32/7 + "भावेण जेण जीदों पेच्छदि, जाणदि आगदं विसे। रज्जदि तेणेव पुणो, बज्झदि कम्मति उवेदेसो' प्रवचनसार - 176 5 "रत्तो बंधदि कम्म" समयसार गाथा 150 6 'भारतीय दार्शनिक निबन्ध" (डा. सागरमल जैन) पृ. 299 321 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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