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________________ प्रत्येक जीव में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्तिरूप - चतुष्ट्य पाया जाता है। जीव का पुद्गल से संबंध हो जाने पर बन्ध की अवस्था में अनन्त शक्तियाँ आवृत हो जाती है। बन्ध के कारणों पर अनेक दार्शनिकों व चिन्तकों ने चिन्तन किया है। सुखलाल संघवी के अनुसार जैन दर्शन में बन्ध के कारणों की चर्चा तीन प्रकार से की गई है- एक परम्परा में – कषाय और योग दो ही बन्ध के हेतु हैं, दूसरी परम्परा के अनुसार, मिथ्यात्व, अविरत्ति, कषाय और योग ये चार बन्ध के हेतु हैं। तीसरी परम्परा के अनुसार मिथ्यात्व, अविरत्ति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच बन्ध के हेतु है।' वाचक उमास्वाती ने तत्वार्थसूत्र में इन पाँच हेतुओं का उल्लेख किया है"मिथ्यात्वाविरति-प्रमादकषाय योगा: बन्धहेतवः" । आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से बन्धकारणों का उल्लेख नहीं है किन्तु कुछ संदर्भ है - जिनसे बन्धकारणों को जाना जा सकता है क्योंकि उसमें यह उल्लेख है कि "जो बन्ध और मोक्ष का अन्वेषण करता है वही मेधावी है"। यहाँ बन्धन के अन्वेषण का तात्पर्य उसके कारणों को जानना ही है। आचारांग के तृतीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में साधक को यह कहा गया है कि 'वह क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वोष, मोह, गर्व, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यञ्च और दुःख का निवर्तन करें। यहाँ पर कार्यकारण भाव का स्पष्ट उल्लेख न होते हुए भी यह कहा जा सकता है कि - क्रोधादि, राग, द्वेष एवं मोहजन्म-मरण, नरक, तिर्यच आदि दुःख के कारण है। इस प्रकार प्रकारान्तर से आचारांग में राग-द्वेष आदि कषायों एवं मिथ्यात्व को बन्धन का कारण माना है। समवायांगसूत्र में राग-द्वेष को बन्धन का कारण कहा गया है। इसमें मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच आश्रवद्वारों या बन्ध हेतुओं की भी चर्चा है। ' तत्वार्थसूत्र पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, पृ. 192 १ तत्वार्थसूत्र , 8/1 3 से मेहावी अणुग्घातस्स खेयपणे जे य बंधपमोक्खण्णेसि, आचारांगसूत्र, 1/2/6/104 - वही, 3/4/30 5 "दुविहे बंधणे पण्ण्ते, तंजहा राग बंधणे व दोसबंधणे चेव, समवायांग सूत्र , 2/9 6 "पंच आसवदारा पण्णता, तंजहा - मिच्छत्तं अविरइ पमाया कसाया योग" वही पृ.5/26 320 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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