________________
महर्षि रमण के अनुसार “चेतन और जड़ जगत के बीच भ्रामक अहं का रहस्यमय आविर्भाव ही बन्ध का कारण है। प्रकृति एवं पुरुष का संयोग ही बन्धन है, यह बन्धन अविवेक के कारण होता है।
___ वास्तव में तो पुरुष निर्विकार, अकर्ता एवं दृष्टा है और प्रकृति की है, किन्तु बुद्धि तत्त्व से चेतन पुरुष भी संक्रान्त हो जाता है और अनुभूयमान वस्तु भी संक्रान्त हो जाती है। फलस्वरुप चेतन पुरुष उस वस्तु से प्रभावित होता है, और बन्धन को प्राप्त हो जाता
है।
योग सूत्र में बन्धन के पाँच कारण माने गये हैं - 1. अविद्या, 2. अस्मिता (अहंकर), 3. राग (आसक्ति), 4. द्वेष और 5. अभिनिवेश (मृत्यु का भय)।' गीता में बन्धन का कारण
गीता में मिथ्या दृष्टिकोण को संसार भ्रमण का कारण कहा गया है। मिथ्यात्व के पाँच प्रकार 1. एकान्त, 2. विपरीत, 3. संशय, 4. विनय (रूढिवादिता) और 5. अज्ञान । जो प्रमाद तमोगुण से प्रत्युत्पन्न है, उसे अधोगति का कारण माना गया है। आसुरीसम्पदा बन्धन का हेतु है, उसमें दम्भ, दर्प, अभिमान, पारुष्य (कठोर वाणी) एवं अज्ञान को आसुरी-सम्पदा कहा गया है। यह अज्ञान ही कर्म-बन्धन का कारण है।'
श्री कृष्ण कहते हैं - दम्भ, मान, मद से समन्वित दुष्पूर्ण आसक्ति (कामनाओं) से युक्त तथा मोह से मिथ्यादृष्टित्व को ग्रहण कर प्राणी असदाचरण से युक्त हो संसार-परिभ्रमण करते हैं। जैनदर्शन में बन्ध के कारण
जैनदर्शन में भी यद्यपि अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति अज्ञान, अविद्या, क्लेश आदि बन्ध के कारणों का उल्लेख है, किन्तु बन्धन सम्बन्धी विचारों में कुछ विशिष्टता है, क्योंकि जैनदर्शन जीव और पुदगल को स्वतंत्र द्रव्य मानता है।
' डा. मनोरमा जै, जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त ,एक अध्ययन, पृ. 111 2 योगसूत्र, 2/3
जैन बौद्ध और गीता के अचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन , वही, पृ. 363 4 गीता, 16/10
319
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org