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जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की परम्परा चलती है, वैसे ही अविद्या से आश्रव और आश्रव से अविद्या (मित्थ्यात्व) की परम्परा परस्पर सापेक्षरूप से चलती रहती है। न्यायवैशेषिक दर्शन में कर्मबन्ध का कारण
न्यायदर्शन में बन्ध के प्रमुख कारण तीन माने हैं - राग, द्वेष और मोह। राग से काम, मात्सर्य, स्पृहा, तृष्णा, और लोभ ये पॉच दोष उत्पन्न होते हैं, द्वेष से क्रोध, ईर्ष्या, असूया, तृष्णा और आमर्ष ये पाँच दोष उत्पन्न होते हैं। और मोह से मिथ्याज्ञान, विचिकित्सा, मान और प्रमाद ये चार दोष उत्पन्न होते है। इन चौदह दोषों के कारण ही संसार में बन्ध को प्राप्त होता है। इन दोषों में मोह, सबसे प्रधान दोष माना जाता है, क्योंकि मोह के कारण अविद्या राग व द्वेष उत्पन्न होते है। जिससे देहादि अनात्म वस्तुओं में, आत्मा की प्रतीति होने लगती है। ' वैशेषिक दर्शन में अविद्या के चार कारण बताये गये है -
संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और स्वप्न। इनसे कर्मों का बन्ध होता है। मीमांसा दर्शन में कर्मबन्ध के कारण
मीमांसा दर्शन में कर्म अनेक प्रकार के कहे गये हैं। कर्म पर मीमांसकों ने बहुत जोर दिया है जिससे ईश्वर का स्थान गौण हो गया। कर्म के भेद बताये हैं - 1. नित्य कर्म : स्नान, ध्यान, संध्या आदि दैनिक कार्य । 2. नैमित्तिक कर्म : विशेष अवसरों पर किये जाने वाले कर्म।
चन्द्रग्रहण अथवा सूर्यग्रहण के समय गंगा नदी में स्नान करना। काम्यकर्म : जो निश्चित फल की प्राप्ति के उद्देश्य से किये जाते है। पुत्रप्राप्ति, धनप्राप्ति आदि के लिए। निषिद्ध कर्म : जिन कर्मों को करने का निषेध रहता है, जिनके करने से मनुष्य पाप का भागी होता है।
(क) वही, पृ. 99
(ख) मज्झिमनिकाय, 1/1/9 ' तत्रैराश्यं रागद्वेषमोहार्थन्तराभावात् न्यायसूत्र, 4,4,3
वात्सयायन भाष्य, न्यायसूत्र 4/1/3 * "तेषां मोहः पापीयान्नामूढस्येत्तरेतरोत्पतेः" न्यायसूत्र 4/1/6
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