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फलस्वरूप वह अवास्तविक एवं क्षणिक पदार्थ को वास्तविक तथा यथार्थ समझने लगता है। बन्धन को उपनिषद में 'ग्रन्थि' भी कहा गया है। इस तरह जीव जन्म-जरा-मृत्यु को यथार्थ मानकर कर्मबन्ध करता रहता है। बौद्ध दर्शन में कर्म बन्ध का कारण
बौद्ध दर्शन में चार आर्यसत्यों में द्वितीय आर्यसत्य, दुःखसमुदाय में दुःख के कारणों का निर्देश किया गया है। दुःख के बारह कारणों को एक श्रृंखला के रूप में निर्दिष्ट किया गया है : इसको द्वादश प्रतीत्यसमुत्पाद (The doctrine of dependent origination) कहा जाता है। प्रतीत्ययमुत्पाद के अनुसार प्रत्येक विषय का कुछ न कुछ कारण होता है। बौद्धदर्शन में दुःख को 'जरामरण' कहा गया है। जरा का अर्थ वृद्धावस्था और मरण का अर्थ मृत्यु होता है। 'जरामरण' का कारण जाति (Rebirth) है। जन्म-मरण ग्रहण करना ही जाति कहा जाता है, यदि मानव शरीर नहीं धारण करता तो उसे सांसारिक दुःख का सामना नहीं करना पडता। जाति का कारण 'भव' (The tendency to the born) है। जन्म ग्रहण करने को भव कहा गया है। भव का कारण उपादान (Mental clinging) है, सांसारिक वस्तुओं से आसक्त रहने की चाह को उपादान कहा जाता है। उपादान का कारण 'तृष्णा' (craving) है। शब्द, स्पर्श, रंग इत्यादि विषयों के भोग की वासना को 'तृष्णा' कहा जाता है। तृष्णा का कारण वेदना (Sense experience) है। पूर्व इन्द्रियानुभूति को वेदना कहा जाता है। वेदना का कारण स्पर्श (Sense Contact) है। इन्द्रियों का वस्तुओं के साथ जो सम्पर्क होता है, उसे “स्पर्श' कहा जाता है। स्पर्श का कारण 'षडायतन' (six sennse organs) है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों और मन के संकलन को षडायतन कहा जाता है। षडायतन का कारण 'नाम-रूप' (Mind body organism) है। मन और शरीर के समूह को 'नाम-रूप' कहा जाता है। 'नाम-रूप' का कारण विज्ञान (consciousnes) है, विकास का होना। विज्ञान का कारण संस्कार (Impression) हैं। संस्कार का अर्थ है व्यवस्थित करना। 'संस्कार' का कारण 'अविद्या' (Ignorance) है।'
अविद्या का अर्थ है सम्यग् ज्ञान का अभाव। जो वस्तु अवास्तविक है, उसे वास्तविक समझना, जो वस्तु दुःखमय है उसे सुखमय समझना। अविद्या ही समस्त दुःखों व बन्धन का कारण है। आश्रव अविद्या के कारण होता है, अविद्या भी अकारण नहीं है।
' हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ. 51
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