SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और कर्म का संश्लेष संबंध यद्यपि विजातीय हो जाता है। इस बन्ध अवस्था में भी जीव और पुद्गल के गुण अत्यक्त हो जाते हैं, किन्तु नष्ट नहीं होते।' निष्कर्षतः बन्ध वही है जो आत्मा को बंधन में डालताहै आत्मा की शक्तियों को कुण्ठित कर देता है, आत्मा के ज्ञान और दर्शन रूप स्वाभाविक गुणों को आवृत कर देता है। सार यही है कि आत्मा के अपने स्वभाव को उपलब्ध होने देने में जो अवरोधक कारण है, वही बन्ध है। बन्ध के स्वरूप पर चिन्तन करने के पश्चात बन्ध के कारणों पर चिन्तन करना आवश्यक है। बन्ध के कारण कर्म और बन्ध को प्रायः सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। जीव और अजीव तत्वों के एक हो जाने से ही संसार में समस्याएं उत्पन्न होती है दोनों तत्वों के पृथक हो जाने से सब समस्याएं स्वतः ही दूर हो जाती है। जीव और अजीव तत्वों का परस्पर में बन्ध किस कारण से होता है, यह जानकर ही इससे मुक्ति का उपाय किया जा सकता है। कर्मबन्ध के कारणों को सभी दर्शनों में विभिन्न रूप से कहा गया विभिन्न दर्शनों में कर्मबन्ध के कारण उपनिषदों में कर्मबन्ध का कारण उपनिषदों में कर्मबन्ध का कारण बताते हुए कहा गया है कि - देहादि अनात्म पदार्थों में आत्माभिमान करना ही कर्मबन्ध का कारण है, इसे ही असुरों का ज्ञान भी कहा गया है जिसके कारण आत्मा परवश हो जाता है। परवश हो जाने पर आत्मा व्यापक ज्ञान से वंचित रह जाती है और जन्म, जरा, मृत्यु आदि को ही यथार्थ मानकर कर्म-बन्ध करता रहता है। अविद्या के कारण अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार के प्रभाव से जीव इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अथवा शरीर से तादात्म्य करने लगता है। बन्धन की अवस्था में जीव को ब्रह्म, आत्मा, जगत के वास्तविक स्वरूप का अज्ञात रहता है, इस अज्ञान के डा. मनोरमा जैन, जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त : एक अध्ययन, पृ 94 (क) छान्दोग्य उपनिषद, अध्याय 8, खण्ड 8, मंत्र 4-5 (ख) वही, अध्याय 7, खण्ड 23, मंत्र 1 315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy