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आत्मा जिस शक्ति से कर्म परमाणुओं को आकर्षित कर उन्हें आठ प्रकार के कर्मों के रूप में जीव प्रदेशों से सम्बन्धित करता है तथा कर्म परमाणु और आत्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, वह बन्ध है। जैसे दीपक अपनी ऊष्मा से बत्ती के द्वारा तेल को आकर्षित कर उसे अपने शरीर (लौ) के रूप में बदल लेता है, वैसे ही यह आत्मरूपी दीपक अपने रागभाव रूपी ऊष्मा के कारण क्रियाओं रूपी बत्ती के द्वारा कर्म-परमाणुओं रूपी तेल को आकर्षित कर उसे शरीर रूपी लौ में बदल देता है।'
पण्डित मालवणिया का मन्तत्य है कि जड एवं जीव का विशिष्ट संयोग ही बन्धन
___ आत्मा के साथ सूक्ष्म जाति के कर्मपुद्गलों का नीरक्षीर के समान अथवा लोहाग्नि के समान एक हो जाना ही बन्ध है। राजवार्तिक के अनुसार “आत्मकर्मणोरन्योन्य प्रवेशलक्षणो बन्धः" अर्थात् जैसे लोहे और अग्नि का एक ही क्षेत्र है और नीर तथा क्षीर मिलकर एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं उसी प्रकार आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होकर, सूक्ष्म पदगल एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं। जीव के एक-एक प्रदेश पर कर्मों के अनन्त प्रदेश अत्यन्त सघन और प्रगाढ रूप से अवस्थित होकर रहते हैं।
श्री जिनेन्द्र वर्णी ने बन्ध के संश्लेष संबंध की व्याख्या करते हुए कहा है कि बन्ध को प्राप्त मूल पदार्थ, भले ही वे जड हो या चेतन अपने शुद्ध स्वरूप से च्युत होकर एक विजातिय रूप धारण कर लेते हैं। जैसे आक्सीजन और हाइड्रोजन। ये दोनों गैसें अग्नि को भड़काने की शक्ति रखती है, परन्तु परस्पर बन्ध को प्राप्त हो जाने पर जल का रूप धारण कर लेती है। दोनों गैसें संश्लेष संबंध को प्राप्त होकर यद्यपि विजातीय रूप धारण कर लेती है, परन्तु वस्तु के स्वाभाविक गुण उस अवस्था में भी नष्ट नहीं होते, अव्यक्त अवश्य हो जाते हैं, जिन्हें पुनः व्यक्त या आविर्भूत किया जा सकता है। जैसे प्रयोग विशेष द्वारा जल को पुनः आक्सीजन और हाइड्रोजन में बदला जा सकता है, वैसे ही आत्मा
डा. सागरमल जैन, जैन, बौद्ध ओर गीता के आचार दर्शनों का तुलनातमक अध्ययन, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान,
जयपुर, पृ 355 . जैनदर्शन में जीव तत्व, वहीं पृ 305 'राजवर्तिक पृ. 26
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