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बांधा होगा, वही कर्म अब उदय में आया है, जिसका फल यह अमुक रूप में भोग रहा है। जैसे कि समुद्रपाल ने अपने प्रसाद में बैठे हुए बध्य व्यक्ति के शरीर पर मण्डित चिह्नों को देखकर संवेगप्राप्त होकर कहा “अहो! इस चोर के द्वारा पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों का ही यह पापरूप फल है।'
बन्ध का स्वरूप
आत्मा या जीव तत्व तथा अनात्मा अर्थात् अजीव तत्व ये दोनों भिन्न-भिन्न है, फिर भी इन दोनों का जो विशिष्ट संयोग होता है, वही बन्ध है।
बंध का शाब्दिक अर्थ है - बंधना, जुडना, मिलना। दो या दो से अधिक परमाणुओं का बंध होता है। कार्मण पुद्गलों का जीव के साथ भी बन्ध होता है। सूक्ष्म धातु जीवात्मा में प्रवेश करती है। राग एवं द्वेष के सहयोग से जीव के साथ जुडती है, और रासायनिक सांयोगिक (Chemical Combination) प्रक्रिया होती है जिसे बन्ध कहते
तत्वार्थवार्तिक और आप्तमीमांसा वृत्ति में बताया गया है कि "जो आत्मा को परतंत्र कर देता है, वह, (आत्मा का परतंत्रीकरण) बंध है"।'
विवेकविलास में कर्मों के बन्ध कारण को 'कर्मबन्ध' कहा गया है। कर्मग्रन्थ के तृतीय भाग में बताया है कि 'नये कर्मों को ग्रहण करना बन्ध है।
आचारांग नियुक्ति में कहा गया है कि 'कर्मद्रव्य के साथ जीव का जो संयोग होता है, उसे ही बन्ध मानना चाहिए।
कर्मस्तव में बताया है कि 'मिथ्यात्व आदि हेतुओं के द्वारा अभिनव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का ग्रहण करना बन्ध कहलाता है'।'
। “अहोऽयहाणं कम्माणं, निज्जाणं पावगं इमं" उत्तराध्ययन 21/8 ' डा. ज्ञानप्रभा, जैनदर्शन में जवतत्तव, धार्मिक परीक्षा बोर्ड, अहमदनगर, पृ. 305 (क) “बध्यतेऽस्वतंत्रीक्रियते, अस्वतंत्रीकरणं वा बन्धः", तत्वार्थवार्तिक 1/4/10
(ख) बंधो नाम कर्मणाडस्वतंत्रीकरणं आप्तमीमांसा 40 * “कर्मणा बन्धनात बन्धो", विवकविलास 8/252 5 "अभिनव कम्मग्गहणं बंधो", कर्मस्तव 3 ' “कम्मदव्वेहिं समं संजोगो होइ उ जीवस्स, सो बंधो नायबो", आवारांग नियुक्ति, 260 7 “मिथ्यात्वादि हेतुभिरभिनवस्य नूतनस्य कर्मणः ज्ञानावरणदेग्रहणं उपादानं बन्ध इत्युच्चते" कर्मस्तव, स्वेपज्ञ पृ. 3
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