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होता है, यह माना है। आत्मा के शुद्ध स्वरुप सम्बन्धी अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान को दूर कर उसके शुद्ध स्वरुप का साक्षात्कार करना ही मोक्ष है। जैन एवं जैनेत्तर दर्शन में बन्ध का स्वरुप बन्ध का स्वरूप - जीव और कर्म का सम्बन्ध (जैन दर्शन)
संसार में सर्वत्र ईंट, सीमेंट, आदि पदार्थ मकान के रूप में बन्धे हुए प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। अनेक कागजो को परस्पर मिलाकर उन्हें सीलकर पुस्तक की जिल्द बांधी जाती है, यह कागजों का परस्पर बन्ध भी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। संसार में कई प्रकार के बन्ध होते हैं - जैसे कि माता-पुत्र वात्सल्यभाव से, गुरू-शिष्य उपकार्य उपकारक भाव से बंधे हुए होते हैं।
ये सब वस्तुएं एक दूसरे के साथ बन्धन के रूप में प्रत्यक्ष बद्ध दिखाई देती है, किन्तु जीव के साथ कर्मबन्ध चर्मचक्षुओं से प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता है, इस कारण कई लोगों के मन में शंका उपस्थित होती है कि कर्मबन्ध कैसे होता है?
चर्मचक्षुओं से न दिखाई देने के कारण वस्तु के सद्भाव से इन्कार नहीं किया जा सकता। उन वस्तुओं को आगम, अर्थापत्ति, अथवा अनुमान के आधान पर मानना ही पडता है। अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न सर्वज्ञ वीतराग आप्त पुरुषों ने कर्मबन्ध को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष देखा है, उन प्रत्यक्षदर्शी महापुरुषों ने फरमाया है - जैसे - शब्दादि विषयों में आसक्त बने हुए अश्व पाश से बांधे गये, वैसे ही पंचेन्द्रिय विषयों में रत जीव परम दुःख के कारणरूप घोर कर्मबन्ध को प्राप्त होते हैं।' इसी प्रकार दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि -"जो साधक अयतना (अविवेक) से चर्या करता है, अयतना से खडा होता है, बैठता है, तथा सोता है या खाता है, बोलता है, वह अन्य प्रणियों की और एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करता है, वह पापकर्म का बन्ध करता है।'
कर्मवन्ध इन्द्रिय प्रत्यक्ष न होने पर भी अनुमानादि प्रमाणों से सिद्ध है। किसी भी संसारी जीव के लक्षणों प्रवृत्तियों अथवा स्वभावों आदि पर भी अनुमान लगाया जा सकता है कि "इस जीव या मनुष्य ने पुनर्जन्म में अथवा इस जन्म में पहले अमुक-अमुक कर्म
ज्ञाताधर्मकथंग सूत्र 1714 "जहां सद्धाइसु गिद्धा, बद्धा आसा, तहेव विसयरया। पावंति कम्मबंधं, परमासहं कारण घोरं " दशवकालिक सूत्र अ. 4, गाथा 1-6
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