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करता है, किन्तु 'वा' शब्द से स्वर्ग से आगे मोक्ष का संकेत मिलता है, जिससे यह ज्ञात होता है कि मोक्ष के निमित्तभूत भी अनुष्ठान करने चाहिए ।
इस प्रकार मोक्ष / निर्वाण का अस्तित्त्व सिद्ध होता है। प्रभास जी की निर्वाणविषयक चर्चा में कई वादों व मतों का निरसन किया है। तथा मण्डिक जी की बन्ध - मोक्ष विषयक चर्चा में विशेषावश्यककार ने उन-उन दर्शनों की एकान्त मान्यताओं का स्पष्टीकरण किया है।
भारतीय दर्शन में मात्र चार्वाक् दर्शन ऐसा है कि जिसने जीव के बन्ध - मोक्ष को स्वीकार नहीं किया है, जबकि अन्य दर्शनों ने इसे स्वीकृत किया है। सांख्य दर्शन में बन्ध - मोक्ष माना, किन्तु जीव के स्थान पर प्रकृति को माना है, उनका मन्तव्य है कि प्रकृति और पुरुष का विवेक होना ही मोक्ष है, अन्य दर्शनों में इसे चेतन और अचेतन का विवेक कहते हैं। मोक्ष की सत्ता सबने स्वीकार की है ।
कतिपय दर्शन यह मानते हैं कि भव्यों के मोक्ष जाने से संसार रिक्त हो जायेगा, उसके उत्तर में विशेषावश्यकभाष्यकार ने बताया कि जीव अनन्त है, अतः ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हो सकती। योगभाष्यकार में बताया है कि " संसार का अन्त है या नहीं, यह बताया नहीं जा सकता। यह निश्चित है कि कुशल का संसार समाप्त होता है तथा अकुशल का संसार समाप्त नहीं होता, यह संसार का कभी उच्छेद नहीं होता ।"
जैन दर्शन में यह माना जाता है कि भव्यों का अनन्तवाँ भाग ही सिद्ध हुआ, जीव अनन्त है और उसका अनन्तवाँ भाग ही सिद्ध है ।
दूसरा तथ्य है कि मोक्ष को जो कृतक मानते हैं उनके लिए यह स्पष्टीकरण दिया, जैसे बौद्ध दर्शन सभी वस्तुओं को क्षणिक व कृतक मानते हैं, किन्तु उन्होंने निर्वाण को असंस्कृत ही माना है ।
भदन्त नागसेन ने इस मत को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि निर्वाण असंस्कृत है, इसलिए उसे उत्पन्न, अनुत्पन्न, अतीत - अनागत, प्रत्युत्पन्न, पंचेन्द्रिय, विज्ञेय, जैसे किसी भी शब्द से वर्णित नहीं किया जा सकता है, वह मनोविज्ञान का विषय बनता है । वेदान्त मत में भी मोक्ष को उत्पन्न किया जाने वाला नहीं है, बल्कि उसका साक्षात्कार
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