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की तरह देवदत्त का अभाव होता तो अधन शब्द का प्रयोग नहीं होता। जीव तो अशरीर और सशरीर दोनों में है।'
____ 'वा वसन्तं' यह भी विद्यमान जीव का ही कथन करता है, क्योंकि रहने का धर्म विद्यमान पदार्थ का है अविद्यमान का नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि सदेही वीतरागी को सुख-दुःख स्पर्श नहीं करता है। अथवा वा अवसन्त ऐसा विश्लेषण करने पर भी अशरीरी मुक्तात्मा जीव अथवा ज्ञानादि गुण विशिष्ट विद्यमान अशरीरी जीव को भी सुख-दुःख स्पर्शता नहीं है, 'वा' अर्थात् वीतरागी जिनके चार घाति कर्म नष्ट हो गये हैं किन्तु जो शरीर धारण किये हुए हैं, वैसे जीवन्मुक्त वीतराग को कुछ भी इष्ट या अनिष्ट न होने से सुख-दुःख का स्पर्श नहीं होता।
'अशरीरं वा अवसन्तं' इसका अर्थ यह करते हैं कि अशरीरी कहीं भी वास नहीं करता (जो सर्वथा है ही नहीं)। किन्तु यह भ्रान्ति है।
प्रियाप्रिययोर पहति रस्ति - प्रिय-अप्रिय का स्पर्श नहीं होता - इसमें जो स्पर्श करने की बात आयी है, वह 'जीव' के अस्तित्व को सूचित करता है। यदि जीव 'वन्ध्यापुत्र' की तरह सर्वथा असत् हो तो, जैस - बन्ध्यापुत्र को प्रियाप्रिय कुछ भी नहीं है' यह कहना व्यर्थ हे, वैसे अशरीर को प्रियाप्रिय कुछ भी नहीं है, यह कथन व्यर्थ है। जिसमें प्रिय-अप्रिय प्राप्ति की सम्भावना ही नहीं है तो, उसका निषेध केसे हो सकता है?
यहां यह प्रश्न हो सकता है कि मुक्त जीव को जब प्रिय अप्रिय दोनों का स्पर्श नहीं होता, तो फिर परमसुख की प्राप्ति कैसे होती है? इसका समाधान यह है कि मुक्त जीव मे पुण्यकृत सुख और पापकृत दुःख नहीं है। वेदों में जिन प्रियाप्रिय का निषेध किया गया है, वह सांसारिक है, अतः मुक्त पुरुष को सांसारिक सुख-दुःख से कोई सरोकार नहीं है। उनका सुख स्वाभाविक है, अकर्मजन्य है, निरुपम है, अनष्प्रतिकार रूप है। अतः यह सिद्ध होता है कि मोक्ष है, मोक्ष में जीव है, और उसे सुख भी है। - "जरामर्यं वैतत् सर्वं यदग्निहोत्रम्" अर्थात् वृद्धावस्था में मरण पर्यन्त भी स्वर्गदायक अग्निहोत्र करना चाहिए। इसका सामान्य अर्थ लेकर व्यक्ति स्वर्ग तक ही जाने की इच्छा
' असरीरव्व वएसो, अधणो व्व सओ निसेहाओ।। वही, गाथा 2017 'जं च वसन्त तं संतमाह वासद्दतो सदेहं पि।
ण फुसेज्ज वीतरागं, जोगिणमिटेत्तरविसेसा ।। विशेष्यावश्यक, गाथा 2019
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