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प्रभास जी पुनः शंका रखते हैं कि :
मुक्तात्मा का सुख और ज्ञान चैतन्य का धर्म है, अतः वह रागवत् अनित्य है? तथा वह सुख और ज्ञान तपादि से काया को कष्ट देने से उत्पन्न होता है, अतः घटवत् कृतक होने से अनित्य है?
__ प्रभु ने इस प्रकार समाधान दिया कि यह कथन युक्तिपूर्ण नहीं है, क्योंकि जो नश्वर होता है वह अनित्य है, मुक्तात्मा का ज्ञान और सुख नश्वर नहीं है। ज्ञान के आवरण का कारण है ज्ञानावरण और सुख का आवरण वेदनीय है, मुक्तात्मा में दोनों कर्मों का अभाव है। तथा कर्मबन्ध के कारण योग कषाय का भी वहां अभाव है, अतः सुख और ज्ञान अनित्य नहीं है। सुख और ज्ञान की नवीन उत्पत्ति नहीं हुई, ये गुण आवरित थे। वे आवरण हट जाने से अनन्त सुख और ज्ञान की प्राप्ति हुई।
अनेकान्तदृष्टि से ज्ञान व सुख नित्य भी है और अनित्य भी है। प्रत्येक क्षण मे पर्याय रूप से ज्ञेय का विनाश होने से ज्ञान का भी नाश होता है तथा सुख का भी प्रत्येक क्षण में नवीन परिणाम उत्पन्न होता है, इस आधार से अनित्य भी है।
इन सब तर्कपूर्ण समाधानों से यह सिद्ध हुआ कि - निर्वाण का अस्तित्त्व है, जीव भी विद्यमान रहता है, निर्वाणावस्था में जीव को परमसुख की प्राप्ति होती है। अब वेदवाक्यों का सम्यक् अर्थ करने पर पूर्ण निश्चित हो जायेगा। वेदवाक्यों का समन्वय
- वेद-उपनिषदों में यह वाक्य है - "न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोर पहतिरस्ति अशरीर वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इस वाक्य से मोक्ष का अस्तित्व, मोक्ष में जीव का अस्तित्व, और निरूपम सुख का अस्तित्व सिद्ध होता है।
'अशरीर' का अर्थ जीव के नष्ट होने का सुचक नहीं है, वह निषेधसूचक शब्द है। जैसे - अधन, अर्थात् विद्यमान देवदत्त के पास धन नहीं है, वैसे ही विद्यमान जीव के लिए 'अशरीर' शब्द का प्रयोग किया गया है, अर्थात् शरीर विहीन जीव। यदि खरविषाण
कयगाइ भावओ वा, नावरणाऽऽबाह कारणाभावा। उप्पायटिइ भंगस्सहावओ वा न दोसोऽयं ।। वही, गाथा 2014
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