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________________ मीठी खुजली होती है, उसे खुजलाते हुए सुख का अनुभव होता है, पर वह वस्तुतः सुख न होकर दुःख है। संसार के सभी पदार्थों के विषय में यह बात कही जा सकती है, राज्य में सुख मानते हैं, यह बात मूढ़मति ही मानते हैं, राजा का कथन है कि - जब तक व्यक्ति राजा नहीं बनता है तब तक उत्सुकता होती है, पर बाद में प्राप्त राज्य की जिम्मेदारी व चिन्ता दुःख दिया करती है तथा विषयों में भी सुख नहीं है अतः विषयजन्य सुख को औपचारिक सुख है और मुक्त जीव का सुख पारमार्थिक है।' कहा गया है कि - कर्मक्षय से जीव सिद्धत्वरूप परिणाम को प्राप्त करता है, वैसे कर्मक्षय से संसारातीत सत्य सुख भी प्राप्त होता है। संसार के सुखों के समान मुक्तात्मा का सुख प्रतिकार रुप में नहीं है, वह निष्प्रतिकार है। देह के बिना सुख की उपलब्धि नहीं होती, यह भ्रान्त धारणा है, क्योंकि शरीर के माध्यम से जो सुख मिलता है, वह तो नश्वर होने से केवल दुख ही है, शाश्वत सुख के लिए शरीर व इन्द्रियों का अभाव आवश्यक है। सिद्ध अशरीरी है, उनका सुख सांसारिक सुख की सीमा को पार करने वाला विलक्षण सुख है। मुक्तात्मा में अनन्त सुख है, इस कथन की सिद्धि इस प्रकार भी की जा सकती है - जीव अनन्त ज्ञानमय है किन्तु ज्ञानावरणीय कर्म से ज्ञान का उपघात होता है, जैसे - बादल-सूर्य के प्रकाश का उपघात करते हैं, यदि बादलों में छिद्र हो तो वे सूर्य-प्रकाश में उपकारी बनते हैं, उसी प्रकार आत्मा के ज्ञान प्रकाश पर इन्द्रिय रुपी छिद्र अनुग्रह करते हैं तब आत्मा का ज्ञान प्रकाश स्वल्प रुप में प्रकाशित होता है। तथा ज्ञानावरणीय का सम्पूर्ण नाश होने पर निरभ्र आकाश में सूर्य के समान सम्पूर्ण शुद्ध रुप से आत्मा प्रकाशित होती है। ठीक इसी प्रकार आत्मा स्वरुपतः स्वाभाविक रुप से अनन्त सुखमय है, उस सुख का पापकर्म से उपघात होता है तथा पुण्य-कर्म उस सुख का अनुग्रह करने वाला है। तथा जब सर्व कर्म का नाश हो जाता है तब आत्मा सकल, परिपूर्ण, स्वाभाविक अनन्त सुख को प्राप्त करता है। ' विसयसुहं दुक्खं चिय दुक्खपडियारओ तिगिच्छ व्व। तं सुहमुवयारात्तो ण, उवयारो विणा तच्वं ।। वही, गाथा 2006 * जो वा देहिंदियजं, सुह मिच्छड़ तं पडुच्च देसोऽयं। संसाराईयमिदं, धम्मंतरमेव सिद्धिसुहं।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2012 308 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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