SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवृत्ति तथा अनिष्ट में निवृत्ति नहीं कर सकती। अतः परदेहगत आत्मा को ज्ञान - स्वरुप मानना चाहिए।' जब तक आत्मा सदेही है तब तक उसका ज्ञान मर्यादित होता है किन्तु विदेही होने पर कर्मों के आवरण दूर होने पर शुद्धतर स्वच्छ आकाश में विद्यमान सूर्य के समान अपने सम्पूर्ण ज्ञान स्वरुप में प्रकाशित होती है। इन्द्रियाँ ज्ञानस्वरुप है ही नहीं, जिससे कि उसके अभाव में ज्ञान ही न हो । मुक्तात्मा सम्पूर्ण ज्ञानवान है, उसका ज्ञान अतीन्द्रिय है, अतः अतिविशुद्ध है । उसे तीन लोक व तीन काल का ज्ञान होता है । जैसे छिद्र वाली चटाई से आने वाले दीप- प्रकाश की अपेक्षा से निरावरण दीप का प्रकाश अधिक स्पष्ट होता है, वैसे ही आत्मा भी अपने समस्त आवरणों के दूर हो जाने के कारण पूर्णरूप से प्रकाशित होती है। अतः सिद्ध होता है कि आत्मा पूर्णज्ञानी है।" प्रभास जी पुनः प्रश्न किया जैन दर्शन की मान्यतानुसार मुक्तात्मा का सुख निराबाध होता है, यह मान्यता युक्त नहीं है क्योंकि सुख का कारण पुण्य है और दुःख का कारण पाप है, अतः मुक्त आत्माओं को पाप नष्ट हो जाने से दुःख नहीं होता, उसी प्रकार पुण्य नष्ट हो जाने से सुख भी नहीं होना चाहिए, फिर मोक्ष में अव्याबाध सुख का कथन कैसे सत्य हो सकता है? अथवा सुख और दुःख का आधार शरीर है, जबकि मुक्तात्मा अशरीरी है, अतः मुक्तात्मा में भी आकाश के समान सुख-दुःख का अभाव होना चाहिए।' भगवान ने समाधान दिया पुण्य से होने वाला सुख भी निश्चय में सुख नहीं है, वह भ्रम है, क्योंकि वह कर्मों के उदय से होता है, उन कर्मों के हट जाने पर नहीं होता । इसी कारण बडे-बडे चक्रवर्ती या देव कोई भी संसारी जीव निश्चय में सुखी नहीं है। हम जिसे सुख मानते हैं वह सुखाभास है जैसे किसी व्यक्ति के शरीर में दाद होने पर उसे 1 2 1 किह सो नाणसरुवो, नणु पच्चक्खाणुभूइओ नियए । परदेहम्मि वि गज्झो, स पवित्ति-निवित्ति लिंगाओ ।। वही, गाथा 1998 सव्यावरणावगमे, सो सुद्धयरो भवेज्ज सूरो छ । 3 - 4 - Jain Education International 1 तम्मय भावाभावण्णाणि, तं न जुत्तं से। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1999 सुबहपयरं दियाण मुत्तो, सव्वपिहाणविणमाओ । अवणीय धरो त्व णरो, विगयावरणप्पई वो त्व ।। वही, गाथा 2001 आधारो देहोचिय, जं सुदुक्खो व लद्वीणं विशेषावश्यकभाष्य, गाया 2003 307 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy