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है? इस प्रश्न के पीछे लोगों की भ्रान्तधारणा रही हुई है, वे लोग सोचते हैं कि जिस मोक्ष को पाने के लिए साधक दिन-रात गीत गाते है, आध्यात्मिक पुरुष जिस मोक्ष की इतनी प्रशंसा करते हैं, उसी को प्राप्त करने के लिए इतना ज्ञान, श्रद्धाभक्ति, कठोर चरित्र पालन एवं कठिन दीर्घतप करते हैं। इतनी दीर्घकालीन साधना के बाद क्या ऐसा ही रूखा-सूखा मोक्ष मिलेगा? जहां पत्थर की शिला पर निकम्मा जीवन जीने या जड़वत् पड़े रहना होता है, वहां भला क्या सुख प्राप्त होता होगा? यह शंका वैशेषिक दर्शन के निर्वाण स्वरुप को पढ़कर होती है।
भगवान ने इस शंका का समाधान दिया -
मुक्त जीव को मिथ्यभिमान से रहित स्वाभाविक, नैसर्गिक प्रकृष्ट सुख होता है, क्योंकि उत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति के बाद जन्म, जरा, व्याधि, मरण, क्षुधा, पिपासा, काम, क्रोध, मद आदि समस्त बाधाओं का अभाव होता है, यूं तो काष्ठ-प्रतिमा आदि जड़ पदार्थों में भी जन्मादि की बाधा नहीं होती है, किन्तु उन्हें सुखी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उनमें ज्ञान का अभाव है। मुक्तात्मा में पूर्ण ज्ञान है, क्योंकि ज्ञानावरण के हेतुओं का अभाव है।' जैसे चन्द्रमा, मुक्तात्मा चन्द्र के समान स्वाभाविक प्रकाश से प्रकाशित है, क्योंकि उस प्रकाश के समस्त आवरण नष्ट हो चुके है।
____ यहाँ यह प्रश्न होता है कि – मुक्तात्मा पूर्णज्ञानी नहीं हैं, वह आकाशवत् अज्ञानी होगी क्योंकि उसमें इन्द्रियों का अभाव है। इस प्रश्न के साथ एक प्रतिप्रश्न उदभूत होता है कि - यदि करण के अभाव में अज्ञानी मानते हैं तो उसे अजीव भी मानना पडेगा। जबकि किसी भी वस्तु की स्वाभाविक जाति, अत्यन्त विपरित जाति - रूप में परिणत नहीं हो सकती। जीव में जीवत्व, द्रव्यत्व, तथा अमूर्तत्व के समान स्वाभाविक जाति है, इसलिए जीव कभी भी अजीव नहीं हो सकता। यदि जीवत्व करण (इन्द्रिय) का कार्य हो, जैसे - धूग अग्नि का कार्य है, अतः अग्नि के अभाव में धुंए का अभाव होगा, वैसे ही
क्षीण निःशेषावरणत्वात् प्रकृष्ट ज्ञानवानसौ, वेदनीय कर्मादीनां च सर्वेषामायाबाध हेतुनां सर्वथाऽपशमात् सर्वाऽऽबाधरहितोऽयमिति। प्रयोगः स्वाभाविकेन स्वेन प्रकाशेन प्रकाशवान मुक्तात्मा समस्त प्रकाशावरण रहितत्वात् तुहिनांशुवत्। विशेष्यावश्यक, टीका, पृ. 821 मुत्तस्स परं सोक्खं, णाणाणाबहाओ जहा मुणिणो। तद्धम्मा पुण विरहादावरणा - 55 बाह हेऊणं ।। विशेष्यावश्यक, गाथा 1992
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