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पुद्गल स्कन्ध पहले तो चक्षुग्राह्य होते है किन्तु उनका चूर्ण, अवलेह करने पर वे रसनेन्द्रिय ग्राह्य बन जाते हैं। कर्पूर, कस्तुरी पहले चक्षु से दिखाई देती है, किन्तु वायु द्वारा अन्यत्र जाने से घ्राणग्राह्य हो जाता है, और कभी कभी ज्यादा दूरी होने पर घ्राणग्राह्य भी नहीं रहती।' इसी प्रकार नमक चक्षुग्राह्य है, परन्तु पानी में मिला देने पर वह रसग्राह्य बन जाता है, पुनः पानी को उबालने पर आँखों से दिखाई देता है। इस प्रकार पुद्गलों का विचित्र परिणाम है।
वायु स्पर्शेन्द्रिय ग्राह्य है, रस जीभ से, गंध नाक से, रूप चक्षु से, तथा शब्द श्रोत्र से ही ग्राह्य है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न पदार्थ किसी एक इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होने पर भी परिणामान्तर को प्राप्त कर अन्य इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य हो जाते है।
इन पुद्गलों की विचित्र परिणति के कारण दीपशिखा जलते समय चक्षु ग्राह्य होती हैं और बुझ जाने पर घ्राणग्राह्य बन जाती है, किन्तु सर्वथा नाश नहीं होता। जैसे दीपक का सर्वथा विनाश नहीं होता है, वैसे जीव का भी सर्वथा विनाश नहीं होता। जैसे - परिणामान्तर प्राप्त दीप 'निर्वाण' प्राप्त कहलाता है। वैसे कर्मरहित अमूर्त स्वभावरूप अव्याबाध परिणामान्तर प्राप्त जीव 'निर्वाण' या निवृति या मोक्ष प्राप्त हुआ कहलाता है। इससे सिद्ध हुआ कि सुख-दुःखादि के क्षय होने पर शुद्ध शाश्वत जो जीव की अवस्था है, वही मोक्ष है।
कई स्थानों पर मुक्ति का उल्लेख है – “स्वाभाविक भाव शुद्धिसहित जीव चन्द्र के समान है, चन्द्रिका के समान उसका विज्ञान है तथा बादलों के सदृश उसका आवरण है' तथा मुक्तात्मा अनाबाधा सुख वाला है क्योंकि उसमें बाधाओं के हेतुओं का अभाव है। कहा भी है - बाधा के अभाव में तथा सर्वज्ञता के कारण मुक्त जीव परमसुखी होता है।
प्रभास जी ने शंका रखी कि निर्वाण/मोक्ष अर्थात् दुःखक्षय वाली अवस्था है। तथा उसमें शब्दादि विषयों का उपभोग नहीं है, तो फिर मुक्तात्मा को सुख कहां से प्राप्त होता
' होऊण इंदियतरं गेज्झा, पुरिंदियंतरग्गहणं ।
खंधा एंति न एंतिय पोग्गल, परिणामया चित्ता। विशेष्यावश्यक, गाथा 1989 जह दीवोनिव्वाणो परिणामन्तरमिओ तहा जीवो।
भण्णइ परिणिव्वाणो पत्तोऽणावाह परिणाम।। विशेष्यावश्यक, गाथा 1991 स्थितः शीतांशुवज्जीवः प्रकृत्याभावशुद्धया।
चन्द्रिकावच्च विज्ञानं तदावरणमभवत्।। योगदृष्टि समुच्चय 181 * तत्त्वार्यभाष्य टीका, पृ. 318 ,
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