SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवत्व का नाश नहीं होता। यदि कारण निवृत्त हो तो कार्य की भी निवृत्ति हो जाती, पर कर्म, जीव का कारण नहीं है, इसलिए कर्म के निवृत्त होने पर भी जीव का अभाव नहीं होता। जीव अविनाशी है - जीव विनाशशील नहीं है, क्योंकि उसमें आकाश द्रव्य की तरह अवयवविच्छेद नहीं दिखता। जो विनाशी होता है उसका अवयव विच्छेद घटादि का मुद्गरकृत ठीकरी आदि रुप में दिखता है, इसलिए जीव के नित्य होने से मोक्ष भी नित्य बौद्ध दर्शन में मानते है कि दीप जैसे निर्वाण को प्राप्त होता है, तब वह पृथ्वी, आकाश या किसी दिशा-विदिशा में नहीं जाता, किन्तु तेल समाप्त होने पर वह मात्र शान्त हो जाता है- बुझ जाता है। वैसे ही जीव भी जब निर्वाण प्राप्त करता है, तब वह पृथ्वी या आकाश में नहीं जाकर मात्र शान्ति को प्राप्त करता है, अर्थात् समाप्त हो जाता है। यदि पदार्थ नित्यानित्य है तो बौद्ध दर्शन की पूर्वोक्त मान्यता कैसे सिद्ध होगी कि मोक्ष में जीव का नाश हो जाता है? इसका समाधान दिया कि - दीपकवत् जीवन का नाश होना, मोक्ष नहीं है, क्योकि दीपक की अग्नि भी सर्वथारूपेण नष्ट नहीं होती, किन्तु परिणामान्तर हो जाता है। जैसे दूध का परिणामान्तर दही बनता है, मुद्गर के प्रहार से घट का परिणामान्तर ठीकरी रूप में होता है, वैसे ही दीपशिखा का परिणामान्तर अन्धकार रूप में हो जाता है, दीपशिखा का सर्वथा विनाश नहीं होता। दीपशिखा प्रत्यक्ष रूप में दिखाई नहीं देती, कारण कि वह उत्तरोत्तर सुक्ष्म-सूक्ष्मतर परिणाम को धारण करती है, जैसे आकाश में बादल बिखर जाने से सूक्ष्म परिणामों के कारण दिखाई नहीं देते, अंजन राशि जब हवा में उड़ जाती है, वह दिखाई नहीं देती, वैसे ही दीप शिखा के बुझने के पश्चात् उसकी ऊर्जा अस्ति-रूप होते हुए भी सूक्ष्मपरिणाम के कारण दृष्टिगोचर नहीं होती।' ___ यह भी तथ्य है कि पुद्गलों का परिणमन विचित्र प्रकार से भी होता है। जैसे - सुवर्णपत्र के रूप में प्रथम चक्षुग्राह्य होता है बाद में शुद्ध करने के लिए उसे अग्नि में डालने पर और भस्म के साथ मिलने फिर वह स्पर्शग्राह्य हो जाता है, और पुनः भस्म से पृथक् होने पर चक्षुग्राह्य होता है। इसी प्रकार नमक, सोंठ, हरडे, और गुड आदि के ' दीपोयथा निर्वृतिमभ्युपेतो ...... सोन्दरनन्द, 16/28/29 303 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy