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कोई कहता है कि – “सत् अर्थात् विद्यमान जीव के राग, द्वेष, मद, मोह, जन्म, जरा, दुःख रोगादि का क्षय हो जाने से जो विशिष्ट अवस्था उत्पन्न होती है, वही मोक्ष
इस प्रकार विरोधी मतों से यह निश्चय नहीं कर सकते कि निर्वाण का वास्तविक स्वरूप किसे मानें? यह भी शंका कि - जीव और कर्म का संयोग आकाश के समान अनादि है, अतः उस संयोग का नाश कैसे हो सकता है?
' इन प्रश्नों का युक्तिपूर्ण समाधान श्रमण भगवान महावीर के मुख से विशेषावश्यकभाष्य में दिलवाया है - जीव और कर्म का अनादिकालीन संयोग नष्ट होता है - जैसे सूवर्ण-पाषाण तथा सूवर्ण का संयोग अनादिकाल से है, किन्तु प्रयत्न अर्थात् पुरुषार्थ से उन दोनों को पृथक् किया जा सकता है, वैसे ही कर्म तथा जीव के संयोग को तप, जप आदि सम्यक क्रियाओं से पृथक किया जा सकता है।'
प्रभास जी ने पुनः शंका प्रस्तुत की - यह संसार नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य देव रुप जीवों से युक्त है, किन्तु इन पर्यायों से रहित शुद्ध जीव दृष्टिगत नहीं है, अतः जब नारकादि रुप पर्याय का नाश होता है तब उसका संयोगी जीव का भी नाश हो जाता है, तो मोक्ष किसका होगा?
यह शंका अयुक्त है, नारकादि पर्यायों के नाश होने से जीव द्रव्य का नाश नहीं होता, जैसे – स्वर्ण की अंगुठी, केयूर आदि पर्यायविशेषों का नाश होने पर भी स्वर्ण वस्तु का नाश नहीं होता है, स्वर्णत्त्व सदैव विद्यमान रहता है, वैसे ही जीव द्रव्य विद्यमान रहता है और मुक्ति को प्राप्त करता है।
कर्म नाश से जीव का नाश नहीं - यह तर्क किया कि - जैसे कर्म के नाश से संसार का नाश होता है, वैसे ही जीव का भी नाश हो जाना चाहिए। जीव के न होने पर मोक्ष का अभाव निश्चित रुप से है।
इसका समाधान है कि - संसार कर्मकृत है, अतः कर्म के नाश हो जाने से संसार का नाश मानने योग्य है, किन्तु जीवत्व कर्मजन्य नहीं है, अतः कर्म का नाश होने पर भी
। पडिवाज्ज मण्डिओ इव वियोगमिह कम्मजीव जोगस्स।
तमणाइणोऽवि कंचण धाऊण व णाण-किरियाहिं।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1977 महावीर देशना, श्लोक 8, पृ. 242
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