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________________ हो जाती है, और एक मकान में अनेक दीपकों की प्रभा समाविष्ट होती है, वैसे ही सिद्धक्षेत्र में अनन्त सिद्ध समा जाते हैं । 1 वेदवाक्यों का समन्वय वेदों में भी इसी प्रकार बन्ध मोक्ष की व्यवस्था सिद्ध की गई है, जैसे "नहि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः । " 2 इस वाक्य के पूर्वार्द्ध में सशरीरी तथा उत्तरार्द्ध में अशरीरी जीव के विषय में कहा गया है। साथ ही बन्ध और मोक्ष का प्रतिपादन किया है। तथा स एष विगुणो विभुर्न विद्यते इस वाक्य का अर्थ यह नहीं है कि संसारी जीव के बन्ध मोक्ष नहीं है, किन्तु यह वाक्य मुक्त जीव के स्वरूप का प्रतिपादक है। इस प्रकार वेद-उपनिषदों में मोक्ष का सद्भाव है । निर्वाण विषयक प्रभास जी की शंका वेदों के ज्ञाता प्रभास जी के मन में यह सन्देह उद्भूत हुआ कि 'निर्वाण है या नहीं?', क्योंकि वेदों में कई प्रकार के वाक्य थे जो परस्पर विरुद्ध अर्थ वाले थे, जैसे “जरामर्यं वैतत् सर्वं यदग्निहोत्रम्" अर्थात् जीवन पर्यन्त अग्निहोत्र करो।" यदि मोक्ष हो तो उसके लिए भी कहीं उल्लेख मिलता, तथा दूसरी जगह यह लिखा है कि "सेषा गुहा दुखगाहा" वह मोक्ष गुफा संसार में आसक्त जीवों के लिए दुष्प्रवेश्य है" अथवा "द्वे ब्रह्मणि परमपरं च तत्र पर सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मः " 3 पर तथा अपर ब्रह्म में परब्रहम का अर्थ भी मोक्ष है। इस प्रकार के वाक्यों से असमंजस हो गया, बौद्धों के निर्वाणविषयक विचारों एवं मीमांसकों के निर्वाण सम्बन्धी विचारों को पढ़कर शंका हुई । प्रभास जी के मन में सन्देह होने का कारण निर्वाण या मोक्ष की विभिन्न परिभाषाएँ थीं, जैसे कि मीमांसा दर्शन की यह मान्यता है कि वैदिक कर्मकाण्ड जीवनपर्यन्त करना आवश्यक है, जबकि जीवों की हिंसा होने से यह यज्ञविधि सावध पापकारी है "यज्ञस्य सावद्य विधि स्वसुपात्" चाहे इस विधि से स्वर्ग प्राप्त हो जाये किन्तु मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, "न मोक्ष सिद्धिर्घटते कदापि । 4 - - 1 परिमियदेसऽणंता, किह माया मुत्ति विरहियत्ताओ। नियम्मि व नाणाई, दिहिओ वेगरुवम्मि ।। वही, गाथा 1860 2 छान्दोग्य उपनिषद् 8 / 12/1 Jain Education International शतपथ ब्राह्मण, 12/4/1/1 महावीरदेशना, श्लोक 3, पृ. 238 301 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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