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जायेगा। अतः लोक-अलोक का विभाग मानना आवश्यक है। सिद्ध जीव लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाते हैं।'
मण्डिक पुत्र ने शंका प्रस्तुत की - 'सिद्धस्य स्थानं सिद्ध स्थानम्' इस व्युत्पत्ति से सिद्ध और स्थान ये दोनों परस्पर में पृथक्-पृथक् है। जैसे वृक्ष के अग्रभाग से फल का पतन होता है, वैसे सिद्ध स्थान से सिद्धों का पतन क्यों नहीं होता?
श्रमण भगवान महावीर ने समाधान दिया कि - 'सिद्धों का स्थान' में जो छठी विभक्ति है, वह कर्ता के अर्थ की द्योतक समझनी चाहिए, इसका अर्थ है - सिद्ध कर्तृक स्थान, अर्थात् सिद्ध रहते हैं। अतः सिद्ध तथा उनके स्थान में भेद नहीं है अथवा सिद्ध स्थान को सिद्ध से भिन्न मानने पर भी पतन सम्भव नहीं है, क्योंकि पतन के कारण जो कर्म है, कर्म के अभाव में पतन नहीं हो सकता, तथा सिद्ध में गतिक्रिया मात्र एक समय के लिए ही होती है, वह भी पूर्व-प्रयोग से। गतिक्रिया के अभाव में पतन नहीं होता, पतन के कई कारण हैं - जैसे स्व प्रेरणा, आकर्षण, विकर्षण और गुरूत्वादि। मुक्तात्मा में इन कारणों का अभाव है, अतः पतन नहीं हो सकता। यह कथन कि - "स्थान है अतः पतन हो सकता है, यह युक्त नहीं है। आकाश का स्थान नित्य होने पर भी पतन नहीं होता।
संसार में से कई जीव मुक्त हो गये है पर यह नहीं कह सकते हैं कि कौन प्रथम सिद्ध हुआ है, जैसे - दिन और रात आदि मान होते हुए भी अनादिकाल के कारण किसी एक दिन या रात को सर्वप्रथम नहीं कह सकते हैं, इसी प्रकार मुक्त जीवों के सादि होने पर भी काल के अनादि होने से किसी मुक्त को सर्वप्रथम नहीं कह सकते।'
यह प्रश्न भी होता है कि अनादिकाल से भव्य जीव सिद्ध हो रहे हैं जबकि सिद्ध क्षेत्र परिमित है, तो उसमें अनन्त सिद्ध कैसे समा जाते हैं? इसका समाधान यह है कि मुक्त जीव अमूर्त है, अतः परिमित क्षेत्र में भी अनन्त का समावेश हो जाता है। जैसे सिद्धों के ज्ञान में अनन्त द्रव्य समा जाते हैं, एक नर्तकी पर हजारों -लाखों दृष्टियां समाविष्ट
। लोगविभागाभावे पडिघायाभावओऽणवत्थाी ।
संववहाराभावो, संबंधाभावओ होज्जा ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1853 २ (क) नह निच्चत्तणओ वा, थाणाविणास पयणं न जुत्तंसे।
तह कम्माभावाओ, पुणक्किया भावओ वा वि।। विशेष्यावश्यक, गाथा 1857 (ख) निच्चत्थाणाओ वा वोमाईणं पडणं पसज्जेज्जा। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1858 भवओ सिद्धो त्ति मई, तेणाहमसिद्ध संभवो जुत्तो। कालाणाइत्तणओ, पठम सरीरं व तदजुत्तं ।। वही, गाथा 1859
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