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देहपरिस्पन्दन में हेतु नहीं हो सकता, अगर हो तो अमूर्त आत्मा को ही हेतु मानना चाहिए, फिर प्रयत्न की आवश्यकता नहीं।
देह परिस्पन्दन का कारण अदृष्ट माने तो यह प्रश्न होता है कि वह मूर्त है या अमूर्त? यदि अमूर्त हो तो आत्मा भी अमूर्त है। और यदि मूर्त है तो वह कार्मणशरीर हो सकता। वह कार्मणशरीर परिस्पन्दन से युक्त होने पर ही बाह्य शरीर के परिस्पन्द का कारण बन सकता है, तब पुनः प्रश्न होता है कि उस कार्मणशरीर में परिस्पन्द का कारणभूत तत्व कौन है? क्योंकि कार्मणशरीर में स्वाभाविक रूप से परिस्पन्दन नहीं मान सकते है, इसका कारण यह है कि शरीर की चेष्ठाएँ अनेक प्रकार की होने से एक जैसी नहीं रहती है, अतः उन्हें स्वाभाविक नहीं मान सकते हैं, फलतः कर्मसहित आत्मा को ही शरीर की प्रतिनियत विशिष्ट क्रिया में व्यापार-रूप होना चाहिए। इससे आत्मा सक्रिय सिद्ध होती है।
मुक्तात्मा की गतिक्रिया स्वाभाविक तथा गति परिणाम के कारण होती है। मुक्तात्मा सिद्ध क्षेत्र में जाकर रूक जाते हैं, इससे आगे नहीं बढते हैं, क्योंकि जीव और पुद्गलों की गति में सहायक धर्मास्तिकाय है, धर्मास्तिकाय लोक में ही है, अलोक में नहीं, अत: जीव लोकाग्र सिद्धक्षेत्र को छोड़कर आगे नहीं जाता है।
यह कैसे कह सकते हैं कि लोक से भिन्न अलोक का अस्तित्त्व है? प्रथम समाधान यह है कि - लोक का विपक्षी तत्त्व होना आवश्यक है, जैसे - घट का विपक्ष, अघट; ज्ञान का विपक्ष अज्ञान, वैसे ही लोक का विपक्ष अलोक है। तथा दूसरा समाधान यह है कि जितने आकाशक्षेत्र में धर्म और अधर्म है, वह लोक है, तथा जहाँ ये दोनों अस्तिकाय नहीं हैं, वह अलोक है। यदि इन दोनों का विभाग न होता तो जीव और पुद्गल अप्रतिहित गति वाले हो जाते, क्योंकि किसी प्रकार का गति में प्रतिघात ही नहीं होता है। परिणामस्वरूप अलोक अनन्त है तो गति का भी अन्त नहीं होता। गति का अन्त न होने पर जीव और पुद्गल का सम्बन्ध नहीं होगा, जिससे पुद्गलस्कन्धों की औदारिक आदि रचना नहीं हो पायेगी, बन्ध, मोक्ष, सुख-दुःख आदि सांसारिक व्यवहार का अभाव हो
' (क) किं सिद्धालय परतो ण गती, धम्मस्थिकाय विरहातो।
सो गतिउवग्गह करो, लोगम्मि जमस्थि णालोए।। विशेष्यावश्यक, गाथा 1850 (ख) तत्त्वार्थसूत्र 10/8
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