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________________ तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय इन सब आत्माओं को शरीर-प्रमाण बताया गया है।' श्रमण महावीर ने समाधान दिया कि वस्तुतः सभी पदार्थ 'उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य युक्त' है। जैसे घट का उत्पाद, मृतपिण्ड का विनाश, और मृत्द्रव्य का दोनों अवस्थाओं में अवस्थित रहना ध्रौव्य है इसी प्रकार मुक्तात्मा का संसारी रूप से नाश, सिद्धत्व रूप से उत्पन्न हुआ और दोनों अवस्थाओं में उपयोगादि स्वभाव से अवस्थित रहा, अतः ध्रौव्य है। तथा मुक्त जीव प्रथम समय के सिद्ध रूप में नाश, द्वितीय समय के सिद्ध रूप का उत्पाद और दोनों समय में जीवत्व तथा द्रव्यत्व रूप धर्म की अपेक्षा से अवस्थित है। अतः पर्याय की अपेक्षा से पदार्थ अनित्य है तथा द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है। ___ मण्डिक पुत्र ने प्रश्न किया कि - मुक्तात्मा कहाँ रहते है? जबकि उनमें कर्मों का अभाव है, और गमनागमन तो कर्माधीन है, वे लोकाग्र पर कैसे पहुंचते है? श्रमण भ. महावीर ने समाधान दिया कि - मुक्तात्मा लोक के अग्रभाग पर 45 लाख योजन की सिद्धशिला है, उस शिला पर सिद्ध (मुक्तात्मा) विराजित होते हैं। ऊर्ध्वलोक में सबसे ऊपर सर्वार्थसिद्ध नामक देवलोक है, इस देवलोक की स्तूपिका के अग्रभाग से 12 योजन की दूरी पर ईषत् प्रागभारा नामक पृथ्वी है, जिसे सिद्धशिला कहते हैं। मुक्तात्मा कर्मों का क्षय कर चुके हैं, जिससे वे कर्म भार से हल्के है। फलस्वरुप ऊर्ध्वगतिरूप स्वाभाविक परिणाम के कारण जीव एक ही समय में लोकान्त तक पहुंच जाता है। मुक्तात्मा कर्म के अधीन नहीं होने पर भी पूर्वप्रयोग से ऊर्ध्व गति करता है। __ पूर्व प्रयोग - पूर्वबद्ध कर्म के छूट जाने के बाद भी उसमें प्राप्त वेग (आवेश) जैसे - कुम्भकार का चाक्र, दण्ड एवं हाथ के हटा लेने पर भी पूर्व प्राप्त वेग के कारण घूमता रहता है, वैसे ही कर्म-मुक्त जीव भी, पूर्वकर्म से प्राप्त आवेश के स्वभाव के अनुसार ऊर्ध्वगति ही करता है। 'तैत्तिरीय उपनिषद्, 1/2 को वा निच्चग्गाहो सव्वंचिय विभव भंग ठिइयमयं। पज्जायंतरमेत्तप्पणाद निच्चाइववएसो।। वही, गाथा 1843 सर्वार्थसिद्धि, 10/5/275/201 297 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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