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________________ मण्डिक पुत्र ने अपनी अगली शंका रखी कि जैसे घट के नाश हो जाने पर उसके कपाल के साथ आकाश का संयोग बना रहता है, वैसे ही जीव ने जिन कर्मों की निर्जरा कर दी उनके साथ भी संयोग रहना चाहिए, क्योंकि वे कर्म और जीव दोनों आकाश में स्थित हैं। जिससे उनका संयोग बना ही रहता है तो फिर पुनः जीव व कर्म का बन्ध क्यों नहीं होता? भगवान ने समाधान दिया कि जैसे निरपराधी को कारागृह की सजा नहीं मिलती, वैसे ही आत्मा में भी बन्ध-कारण का अभाव होने से वह पुनः बद्ध नहीं होती। मुक्त जीव अशरीरी है अतः कर्म बन्ध के कारणभूत मन-वचन-काया का योग न होने से उसका पुनः कर्म बन्ध नहीं होता। केवल कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आत्मा के साथ संयोग होने पर कर्मबन्ध नहीं होता। क्योंकि ऐसा होने पर सभी जीवों का भाव से कर्म-बन्ध होने लगेगा । ' बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा मुक्त होने पर पुनः संसार में आती है, पर जैन दर्शन में इस मिथ्या मत का निरसन किया है कि मुक्त जीव संसार में जन्म नहीं लेता, जैसे बीज के नष्ट होने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, वैसे कर्म - बीज नष्ट होने पर भवोत्पत्ति नहीं होती, अतः मुक्तात्मा सदा मुक्त रहते हैं तथा मुक्तात्मा नित्य है, क्योंकि वह आकाश की भाँति द्रव्य होने पर भी अमूर्त है।' यहाँ प्रश्न होता है कि यदि आत्मा आकाश के समान नित्य है तो वह सर्वव्यापी भी होना चाहिए? शंका' : मण्डिक जी प्रश्न करते है कि क्या आत्मा एकान्त रूप से नित्य है ? विशेषावश्यकभाष्यकार ने इस प्रश्न का समाधान दिया कि आत्मा सर्वव्यापी नहीं है, क्योंकि वह कर्ता है आत्मा देहप्रमाण होती है, यह मान्यता उपनिषदों में भी उपलब्ध होती है। कौषीतकी उपनिषद् में उल्लेख है जैसे तलवार अपनी म्यान में और अग्नि अपने कुण्ड में व्याप्त है, उसी प्रकार आत्मा शरीर में नख से लेकर शिखा तक व्याप्त है। - सोऽणवराहो व्व पुणो न बज्झए बंधकारणाभावा । जोगा य बंधहेऊ न व ते तस्सासरीरोति । विशेषावश्यकभाष्य गाया 1840 Jain Education International 2 न पुणो तस्स पसुई, बीयाभावादिछंकुररसेव । बीयं च सर कम्मं न य तस्सासरिरोति ।। वही, गाथा 1841 कौषीतकी उपनिषद्, 4/20 , 296 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org.
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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