SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्ष को एकान्त रूप से कृतक कहना उचित नहीं है, क्योंकि - 1. मोक्ष कोई वस्तु नहीं है जिसका निर्माण या रचना की जा सके, अपितु यह तो जीव की वह विशिष्ट स्थिति है जो उससे कर्मों के सर्वथा पृथक् हो जाने से प्राप्त होती है। अतः उसे कृतक कहना उचित नहीं है। इसे हम युं भी कह सकते हैं कि वस्तु-रचना की अपेक्षा से मोक्ष निर्मित या कृतक नहीं है। मोक्ष जीव की एक विशिष्ट स्थिति है जो जीव से कर्मों के सर्वथा अलग हो जाने की दशा है, क्योंकि यह दशा भी प्रयत्न पूर्वक प्राप्त की जाती है, तथा प्रयत्न के अभाव में प्राप्त नहीं होती है, अतः स्थिति व प्रयत्न की अपेक्षा से इसे कृतक भी माना जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष को एकान्त रूप से कृतक नहीं कहा जा सकता है। ___ बौद्धदर्शन सभी वस्तुओं को कृतक (संस्कृत) मानता हैं किन्तु वह भी निर्वाण को असंस्कृत ही मानता है। राजा मिलिन्द ने प्रश्न किया - ऐसी कोई वस्तु है, जो कर्मजन्य न हो हेतुजन्य न हो, और ऋतुजन्य न हो? प्रत्युत्तर में भदन्त नागसेन ने कहा कि - आकाश और निर्वाण ये दो वस्तुएं ऐसी है कि जो कर्म, हेतु या ऋतु से उत्पन्न नहीं होती। तब मिलिन्द ने पुन: प्रश्न किया कि भगवान ने मोक्षमार्ग का उपदेश किसलिए दिया है? उसके कारणों की चर्चा किसलिए की है? इसके उत्तर में भदन्त नागसेन ने कहा - मोक्ष का साक्षात्कार करना और उसे उत्पन्न करना, ये दोनों बातें अलग अलग है। जैसे कोई भी मनुष्य हिमालय तक अपने निजी प्राकृतिक बल से पहुंच सकता है, किन्तु वह उसे उसी बल से उठाकर दूसरी जगह नहीं रख सकता है। कोई मनुष्य नौका का सहारा लेकर सामने के किनारे पर जा सकता है, किन्तु वह उस किनारे को उठाकर अपने पास किसी भी प्रकार से नहीं ला सकता, इसी प्रकार निर्वाण का साक्षात्कार करने का मार्ग भगवान दिखा सकते हैं, परन्तु निर्वाण को उत्पन्न करने बाले हेतुओं को नहीं बता सकते। इसका कारण यह है कि निर्वाण असंस्कृत है।' 'मिला प्रकाश : खिला बसन्त, पृ. 277 295 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy