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मण्डिक पुत्र की तीसरी शंका थी कि __ यदि मोक्ष की प्राप्ति (उत्पत्ति) उपाय या निमित्त से होती है तो उसे कृतक (किसी की. सहायता से जन्य) मानना होगा, और जो कृतक होता है, वह अनित्य होता है। जैसे घटादि की उत्पत्ति कुम्भकार द्वारा होती है, अतः वह कृतक कहलाता है, साथ ही अनित्य भी। इसी प्रकार क्या मोक्ष भी अनित्य है?
श्रमण भ. महावीर ने समाधान किया कि
यह निश्चित नहीं है कि जो कृतक होता है वह अनित्य ही होता है। घटादि का प्रध्वंसाभाव कृतक होने पर भी नित्य है (क्योंकि वह मिट्टी के रूप में ध्रुव है)। प्रध्वंसाभाव को अनित्य मानने पर उसका अभाव हो जाने के कारण घडे आदि पदार्थ पुनः बन जायेंगे, अतः प्रध्वंसाभाव को अनित्य नहीं कहा जा सकता है। प्रध्वंसाभाव केवल अभाव-स्वरूप नहीं है, बल्कि वह घट के विनाश से उत्पन्न विशेष प्रकार का पुद्गल-संधात-रूप हैं, अतः वह भाव रूप वस्तु है।' जो कृतक होता है वह अनित्य होता है, यह अनुमान सत्य नहीं है, मोक्ष कृतक किस रूप में है। मोक्ष का अर्थ है - कर्म-पुद्गलों का जीव से पृथक् होना। किन्तु पृथक् होने पर जीव में ऐसी क्या विशिष्टता आई जिससे मोक्ष को कृतक माने।
जैसे - आकाश में स्थित घट को दण्ड से फोड़ने पर आकाश में कोई विशेषता नहीं आती, घड़ा जरूर फूट जाता है, वैसे ही तपस्यादि से कर्म को नष्ट करने पर जीव में किसी प्रकार की नवीनता नहीं आती। क्योंकि जीव का स्वभाव तो पहले से ही वही था, परिवर्तन कर्मों ने लाया, और वे हट गए तब जीव पुनः अपनी पूर्वावस्था में आ गया। तब मोक्ष को एकान्त रूप से कृतक कैसे माना जा सकता है? आत्मा आकाश के समान अवस्थित होने से नित्य है।
अपेक्षाभेद से मोक्ष कथंचित रूप से अनित्य है, क्योंकि विश्व के समस्त पदार्थ द्रव्य-पर्याय की अपेक्षा से नित्यानित्य है।
कयगाई मत्तणाओ, मोक्खो विच्चो ण होइ कुंभोव्व
नो पद्धंसाभावो, भुवि तद्धम्मा वि जं निच्चो।। गाथा 1837 2 किं वेगंतेण कयं पोग्गलमेत विलयम्मि जीवस्स। किं निव्वत्तियमहियं नभसो घडमेत्तविलयम्मि।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1839
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