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अनन्त है, प्रत्येक समय उनमें से कुछ के मोक्ष के जाने पर भी भव्यराशि का कभी उच्छेद नहीं होता। अतीतकाल में अनन्त के अनन्तवें हिस्से के जीव मोक्ष में गये हैं, इतने ही वर्तमान और भविष्यत्काल में मोक्ष जायेंगे, तदपि संसार भव्य जीवों से रहित नहीं हो सकता।' सम्पूर्ण काल में भी भव्य जीवों का उच्छेद नहीं होगा, क्योंकि भव्य जीव अनन्त है। जितने जीव मोक्ष गये, वह निगोद के जीवों का अनन्तवाँ भाग है।
___ मण्डिक जी की दूसरी शंका थी कि जब भव्यों का अनन्तवाँ भाग ही मुक्त हो सकता तो उनमें से कितने ही भव्य जीव ऐसे हैं, जो कभी सिद्ध नहीं होते, तब उन्हें अभव्य ही कहना चाहिये?
भव्य का अर्थ है योग्य। जिस जीव में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता है, उसे भव्य कहते हैं। जिनमें योग्यता हो वे सब मोक्ष जाते हैं, ऐसा सिद्धान्त नहीं है, किन्तु जिस भव्य जीव को मुक्त होने की सम्पूर्ण सामग्री मिलती है, वही मोक्ष जाता है। जैसे - सूवर्ण, पाषाण, काष्ठ आदि मे प्रतिमा बनने की योग्यता है, किन्तु जब तक उन्हें प्रतिमा के योग्य साधन नहीं मिलते हैं, तब तक वे प्रतिमा नहीं बन सकती, वैसे ही जब तक भव्यों को साधन नहीं मिलते तब तक मोक्ष नहीं जा सकते।
- सोने को सुवर्ण खान से अलग किया जा सकता है, किन्तु यह जरूरी नहीं कि सभी सुवर्ण इन पाषाणों से अलग हो। जिसे वियोग की सामग्री मिलती है, उससे ही सुवर्ण अलग होता है। वैसे ही चाहे सभी भव्य मोक्ष न जाएं, तथापि भव्य ही मुक्त होते हैं। अभव्य मोक्ष नहीं जाता है।
भव्य जीव से विपरीत अभव्य जीव है, उसमें मोक्ष जाने की योग्यता नहीं होती। कितनी ही साधना-तप-जप कर ले किन्तु योग्यता के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं होता।
' (क) एवं भव्बुच्छेत्तो कोट्ठागाररस अवचयंति वि।
तं गाणंतत्तणतोऽणागतकालवराणं व।। वही, गाथा 1827 (ख) जं चातीताणागतकाला तुल्ला जतो य संसिद्धो।
एक्को अणंतभागो, भव्वाणमतीतकालेणं ।। वही, गाथा 1828 भण्णइ भव्यो जोग्गा, न च जोग्गत्तेण सिज्झए सब्बो। जह जोग्गम्मिवि दलिए, सबम्मि न कीरए पडिमा।। वही, गाथा 1834 (क) जहवा स एव पासाण-कणग जोगोऽवि जइवि जोग्गेऽवि
न विज्जुज्जइ सब्बो च्चिय स विउज्जइ जस्स संपत्ती।। विशेषावश्यकभाष्य - गाथा 1835 (ख) किं पुण जा संपत्ती सा जोग्गसेव न उ अजोग्गस्स।
तह जो मोक्खो नियमा, सो भव्वाणं न इयरेसिं।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1836
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