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की थी। इसका समाधान होने पर इन्होंने बन्ध से छुटकारा कैसे मिलता है, बन्ध अनादि सान्त है या अनादि अनन्त है, इस पर चिन्तन किया। मण्डिक जी ने शंका प्रस्तुत की कि
सभी जीवों के समान होने पर भी भव्य – अभव्य का भेद क्यों है? नारकादि भेद कर्मकृत है किन्तु भव्य-अभव्य का भेद स्वाभाविक है, तब जीव का स्वाभाविक भेद मानने का क्या कारण है? पुनः यदि भव्यत्व को जीवत्व के समान नित्य माने तो जीव कभी मुक्त नहीं हो सकता? और नाश मान तो जैसे कोठार में से थोड़ा-थोड़ा धान्य निकालने पर भी वह कालान्तर में रिक्त हो जाता है वैसे ही संसार में भव्य जीवों का भी अभाव हो जायेगा?
इस शंका का समाधान श्रमण भ. महावीर ने इस प्रकार किया
भव्यत्व व अभव्यत्व के भेद के बारे में उन्होने कहा कि जैसे जीव तथा आकाश में द्रव्यत्व, सत्व, ज्ञेयत्व व प्रमेयत्व के रूप में समानता है - किन्तु चेतनत्व-अचेतनत्व, जीवत्व तथा अजीवत्व के कारण स्वभाव भेद है, वैसे ही समस्त जीव, जीवत्व की अपेक्षा से समान है किन्तु स्वभाव से भिन्न हो सकते हैं। कोई भव्य हो सकता है और कोई अभव्य।
जिस प्रकार घटादिकार्य का प्राग्भाव अनादि स्वभाव रूप होने पर भी घड़े की उत्पत्ति होते ही नष्ट हो जाता है, वैसे ही भव्यत्व भी स्वभावगत अनादि होने पर भी ज्ञान, तप, तथा अन्य क्रियाओं के आचरण से नष्ट हो जाता है।
भव्य जीव संसार से पार होकर मोक्ष जाते है, किन्तु इससे यह प्ररूपणा नहीं हो सकती है कि कालान्तर में संसार भव्य जीवों से रहित हो जायेगा। जैसे आकाश और भविष्यत्काल अनन्त है, वैसे ही जीव भी अनन्त है, अनागत काल की समयराशि में प्रत्येक क्षण कम होता रहता है, किन्तु वह अनन्त समय प्रमाण है, अतः उसका उच्छेद सम्भव नहीं है। आकाश के अनन्त प्रदेशों में से कल्पना से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश अलग किया जाये तो भी आकाश-प्रदेशों का उच्छेद नहीं होगा। ठीक इसी प्रकार भव्य जीव
पढमोऽत्थाऽभव्वाणं भव्याणं कंचणोवलाणं व। जीवत्ते सामण्णे भव्योऽभव्यो त्ति को भेत्तो।। वही, गाथा 1821 दव्याइत्ते तुल्ले, जीव-नहाणं सभावओ भेओ। जीवाऽजीवाइगओ जह, तह भव्वे-यर विसेसो।। वही, गाथा 1823
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