SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय में संदेह था, उसका समाधान श्रमण भगवान महावीर ने किया। तदनन्तर मोक्ष तथा भव्य-अभव्य के विषय में जो शंका थी उसका निवारण किया। इसकी विशेष चर्चा गणधरवाद में की गई है। विशेष्यावश्यकभाष्य में मोक्ष (निर्वाण) की समस्या और उसका समाधान _ भारत के समस्त आस्तिक दर्शनों और धर्मों ने मोक्ष की चर्चा की है। उन्होंने मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को ही माना है। मोक्ष का क्या स्वरूप है, मोक्ष का अस्तित्व है या नहीं, इस पर दार्शनिकों ने गहन चिन्तन किया है। किन्तु चार्वाक दर्शन, जो मोक्ष को मानता ही नहीं हैं। उसके अनुसार – "मोक्ष किस लिए चाहिए? जब आत्मा ही नहीं है तब मोक्ष किसका होगा?" बौद्ध दर्शन में मोक्ष को निर्वाण कहते है, निर्वाण का अर्थ है बुझ जाना। जिस प्रकार जलता हुआ दीपक बुझ जाता है तब वह समाप्त हो जाता है, ठीक उसी प्रकार निर्वाण का अर्थ है - आत्म-दीपक का बुझ जाना या नष्ट हो जाना। निर्वाण होने पर आत्मा कहीं नहीं जाती है। बौद्ध दर्शन निर्वाण को अभाववाचक मानता है। न्यायदर्शन मोक्ष अवस्था में आत्मा के सभी निजगुणों का उच्छेद मानता हैं। वैशेषिक दर्शनानुसार भी बुद्धि (ज्ञान), सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, इन नौ गुणों का उच्छेद (विनाश) हो जाना ही मोक्ष है।' इन परस्पर विरोधी विचार धाराओं के कारण मण्डिक जी तथा प्रभास जी के मन में शंका थी कि मोक्ष या निर्वाण है या नहीं? यदि है तो जीव को मोक्ष की प्राप्ति किस प्रकार होती है? वेदों व उपनिषदों में भी कुछ वाक्य ऐसे मिलते हैं जिनसे मोक्ष का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है। उनके मन में जो प्रश्न समुद्भूत हुए तथा जिनका समाधान श्रमण भ. महावीर ने किया, उनकी चर्चा विशेष्यावश्यकभाष्य के अन्तर्गत गणधरवाद में की गई है। हम पूर्व में यह उल्लेख कर चुके हैं कि मण्डिक जी ने बन्ध के अस्तित्व पर शंका मण्णसि कि दीवस्स व णासो णिव्याणमस्स जीवस्स। दुक्खक्खयादिरुवा किं होज्ज व से सत्तोऽववत्था।। वही, गाथा 1975 बुद्धि-सुख-दुःख-इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-धर्माधर्मसंस्काराणां नवानात्मगुणानां उच्छेदः मोक्षः। (क) किं मण्णे णिव्वाणं अस्थि णत्थि त्ति संसयो तुझं। गाथा 1974 (ख) किं मण्णे बंध - मोक्खा संति न संतित्ति संसओ तुज्झ। गाथा 1804 291 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy