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________________ ___ यह कथन युक्तिपूर्ण नहीं है, कि जो अनादि है वह अनन्त हो, जैसे बीज अंकुर की सन्तान अनादि है, फिर भी उसका अन्त हो जाता है। यदि बीज तथा अंकुर में से किसी का भी कार्य उत्पन्न करने से पूर्व ही नाश हो जाए तो बीजांकुर की सन्तान का नाश हो जाता है। जैसे मुर्गी और अण्डे की सन्तान अनादिकालीन है, किन्तु इन दोनों में से कोई एक अपने कार्य को उत्पन्न करने से पूर्व ही यदि नष्ट हो जाता है तो इनकी सन्तान का भी अन्त हो जाता है। इसी प्रकार स्वर्ण और मिट्टी का संयोग अनादि संततिगत होने पर भी अग्नितापादि से उस संयोग का नाश हो जाता है, ठीक उसी प्रकार जीव एवं कर्म का संयोग भी अनादिकाल से होने पर भी सम्यकश्रद्धा आदि रत्नत्रय द्वारा नाश हो सकता है।' शंका : जीव और कर्म का संयोग जीव और आकाश के संयोग के समान अनादि अनन्त है या सूवर्ण-मृतिका के समान अनादि सान्त है। दोनों सम्बन्ध एक साथ नहीं रहते। - जीव में दोनों प्रकार के सम्बन्ध घटित होते हैं। सामान्य जीव की अपेक्षा से दोनों प्रकार के सम्बन्ध है। अभव्य जीवों की अपेक्षा से अनादि अनन्त है - संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्मयुक्त है, कर्म बन्धन और कर्मफल भोग, यह चक्र निरन्तर चल रहा हैं। यह कर्मफल भोग चक्र अनादिकाल से निरन्तर चल रहा है। जैनाचार्यों ने बताया है कि - प्रतिक्षण प्राचीन कर्म, फल देकर आत्मा से पृथक् होते रहते हैं और नवीन कर्म आत्मा के रागादि परिणामों से पुनः बन्धते रहते हैं। जैसे - अन्न भण्डार से पुराना धान निकालते हैं और नया भरते हैं, उसी प्रकार कार्मण शरीर - भण्डार में भी कर्मों का आगमन निरन्तर चलता रहता है। यदि निर्जरा की प्रक्रिया नहीं हो तो वे कर्म उदय तथा बन्ध अवस्था में चलते रहते हैं, ऐसी स्थिति अभव्य जीवों की होती है, उन जीवों की अपेक्षा से कर्म-संयोग अनादि-अनन्त है और भव्य जीवों की अपेक्षा से अनादि सान्त हैं। इस प्रकार बन्ध की चर्चा की गई है, जब बन्ध का अस्तित्त्व स्वीकार करते हैं तब मोक्ष अर्थात् मुक्ति का अस्तित्त्व स्वीकार करना अनिवार्य है। मण्डिक जी को बन्ध के (क) अण्णतरमणिव्वत्तियकज्जं, बीयंकुराण जं विहयं। तत्थ हओ संताणो कुक्कुडि-अण्डातियाणं च" वही गाथा 1818 (ख) जधवेह कंचणो वल संजोगोऽणातिसंतति गतो वि। वोच्छिज्जति सोवायं तध जोगो जीवकम्माणं " वही, गाथा 1819 290 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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