________________
इस चर्चा का सम्बन्ध है क्योंकि जो कर्म किया जाता है, वही तो बन्ध है अतः कर्म सन्तान के अनादि सिद्ध होने पर बन्ध भी अनादि सिद्ध होता है। शरीर व कर्म का कार्यकारण भाव यथार्थ है, इन दोनों में कार्य-कारण भाव न होने पर दोनों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतः यह स्वीकार करना आवश्यक है कि जीव कर्म द्वारा शरीर को उत्पन्न करता है, अतः वह शरीर का कर्ता है ओर जीव शरीर द्वारा कर्म को उत्पन्न करता है इसलिए वह कर्म का कर्ता भी है। जैसे चाक, दण्ड आदि उपकरणों से घडे को उत्पन्न करने वाला कुम्भकार घडे का कर्ता कहलाता है, वैसे ही शरीर व कर्म सन्तान का सम्बन्ध अनादि सिद्ध हो जाने पर जीव व उसके बन्ध को अनादि मानना योग्य है।' शंका : कर्म की सिद्धि किस प्रकार होती है? कर्म जब इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं है तो उसे कारण कैसे मान सकते है?
कर्म अतीन्द्रिय होने पर भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि उसकी सिद्धि कार्य से होती है। जैसे शरीर आदि की उत्पत्ति में कोई करण होना चाहिए, जैसे घडे आदि दण्डादि साधनों के बिना उत्पन्न नहीं होते, वैसे शरीर भी कार्य होने से करण के अभाव में उत्पन्न नहीं होता। शरीर रूपी कार्य के लिए जो करण है, वही कर्म है।
जीव और शरीर क्रमशः कर्ता और कार्य है, उन दोनों के बीच जो सम्बन्ध कराने वाला है, वही कर्म है। जैसे - कुम्भकार तथा घट ये दोनों कर्ता और कार्य हैं और दण्ड उनका करण है, वैसे आत्मा और शरीर के विषय में घटित होता है।
- जैसे चेतन की कृषि आदि क्रियाएँ सफल है, वैसे ही दानादि क्रिया भी सफल होनी चाहिए, उस दान का जो फल है वही कर्म है।' बन्ध अनादि सान्त है
मण्डिक जी का कथन कि यदि कर्म और जीव का सम्बन्ध अनादि है तो वह अनन्त भी होना चाहिए, जो अनादि है वह अनन्त अवश्य होता। इस कथन का समाधान श्रमण भगवान महावीर ने किया।
कत्ता जीवो कम्मस्स करणओ जध घडस्स घडकारे। एवं चिय देहस्स वि, कम्मकरण संभवाउत्ति" वही, गाथा 1815 कम्मं करणमसिद्धं च ते मती, कज्जत्तोतंय सिद्ध । किरियाफलओ य गुणो पडिवज्ज तमग्गिभूति ब"। वही, गाथा 1816
289
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org