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- जीव तथा कर्म दोनों के सम्बन्ध को अनादि मानने पर बन्ध-मोक्ष चरितार्थ नहीं हो सकता, क्योंकि जिसका सम्बन्ध अनादि है उसका कभी अन्त नहीं होता। जैसे-जीव और ज्ञान का सम्बन्ध । ज्ञान आत्मा का लक्षण है, वह कदापि दूर नहीं होता, वैसे ही आत्मा और कर्म का सम्बन्ध है।' अनादि होने पर उसे अनन्त भी होना चाहिए। यदि अनन्त हो तो जीव को कभी भी मोक्ष नहीं हो सकेगा। इस प्रकार की युक्ति से यह सिद्ध किया कि बन्ध और मोक्ष जीव में घटित नहीं हो सकते। पर मण्डिक जी का दृष्टिकोण एकान्तिक
था।
श्रमण भगवान महावीर ने शंका समाधान इस प्रकार दिया
शरीर तथा कर्म की सन्तान अनादि है, क्योंकि इन दोनों में परस्पर कार्य-कारण भाव है। जैसे बीज से अंकुर तथा अंकुर से बीज होने का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है, इसी प्रकार देह से कर्म और कर्म से देह की उत्पत्ती का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है। इसलिए इन दोनों की सन्तान अनादि है। उन विकल्पों का कोई स्थान ही नहीं है कि जीव पहले या कर्म पहले। कर्म की अनादि सन्तान की सिद्धि शरीर और कर्म के कार्य-कारण भाव से सिद्ध होती है। जैसे कि - शरीर से कर्म उत्पन्न होता है, अर्थात् कर्म शरीर का कार्य है, किन्तु यदि शरीर ने कर्म को उत्पन्न किया है तो शरीर भी पूर्वकर्म का कार्य है अर्थात् वह भी कर्म से उत्पन्न होता है। इस प्रकार दोनों में कार्य-कारण भाव है। मण्डिक पुत्र ने निम्न शंका प्रस्तुत की 2. शंका : कर्म की सन्तान अनादि होने पर भी जीव कर्म के बन्ध मोक्ष की चर्चा में उसकी अनादिता से क्या सम्बन्ध है? अतः कैसे कहा जा सकता है कि जीव व कर्म का संयोग अनादि है ?
इस शंका का समाधान श्रमण भ. महावीर ने इस प्रकार दिया :
' होज्जाणत्तियो वा संबंधो तह वि ण घडए मोक्खो।
जोडणाति सोऽणंतो जीवणहाणं व संबंधो" वही, गाथा 1811 संताणोऽणातीओ परोप्परं हेउ हेउ भावाओ। देहस्स य कम्मस्स य मंडियं! बीयंकुराणं व।" वही, गाथा 1813
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