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________________ कर्म से पूर्व आत्मा की उत्पत्ति घटित नहीं हो सकती, क्योंकि खरशृंग की तरह उसकी उत्पत्ति का कोई कारण नहीं है। यदि आत्मा की उत्पत्ति कर्मरूप कारण के अभाव में मानते हैं तो फिर आत्मा का विनाश निष्कारण मानना होगा। (जबकि आत्मा अनादिकाल से है, अतः उसकी उत्पत्ति और विनाश के लिए हेतु की आवश्यकता नहीं है) आत्मा को अनादि मानने पर आकाशवत् कर्म का बन्ध नहीं होगा, क्योंकि बन्धन का कारणभूत कर्म नहीं है, यदि कारण के अभाव में भी बंध मानते हैं तो मुक्त जीव के भी कर्मबन्ध होने लगेगा, और मोक्ष. का अभाव हो जायेगा, अथवा कर्मबन्ध के अभाव में सदा मुक्त कहलायेगा। अतः पहले जीव और पीछे कर्म उत्पन्न होते हैं, यह अयुक्त है।' 2. कर्म जीव से पहले भी सम्भव नहीं है जीव से पहले कर्म की उत्पत्ति भी घटित नहीं होती है, क्योंकि जीव कर्म का कर्ता है, तथा कर्म की उत्पत्ति कर्ता के अभाव में नहीं हो सकती। यदि जीव रूपी कर्ता न हो तो कर्म कैसे होगा? जीव की तरह कर्म की भी निर्हेतुक उत्पत्ति सम्भव नहीं है। यदि उत्पत्ति निष्कारण है तो विनाश भी कारण के अभाव में होना चाहिए, अतः कर्ता के अभाव में कर्म नहीं हो सकते।' 3.. जीव तथा कर्म युगपद् उत्पन्न नहीं जीव और कर्म यदि दोनों युगपद् उत्पन्न हैं तो उनमें से जीव को कर्ता और कर्म को उसका कार्य नहीं मान सकते है। जैसे गाय के दोनों सींग एक साथ उत्पन्न होते हैं, उनमें से एक को कर्ता दूसरे को कार्य नहीं कहा जा सकता है, अतः जीव और कर्म के युगपद् उत्पन्न होने पर उनमें कर्ता कार्य का व्यवहार नहीं हो सकेगा। ' 'न हि पुवमहेतुतो, रखर सिंगं वावसंभवो जुत्तो। __णिक्कारण जात्यस्स य, णिक्कारणतो च्चिय विणासो" वही, गाथा 1806 2 (क) होज्ज व स णिच्चमुक्को, बंधाभावम्मि को व से मोक्खो। ण हि मुक्कववदेसो, बंधाभावे मतो णभसो" वही, गाथा 1808 (ख) निर्हेतुकत्वान्न हि सम्भवोऽपि, स्याद वाजिनः श्रृंगमिवात्र लोके।। महावीर देशना, नरेन्द्र विजयजी, श्लोक 4, पृ. 170 श्लोक 44. 170 'ण य कम्मस्स वि पुव्वं, कत्तुरभावे समुब्भवो जुते। णिक्कारणओ सो वि य तह जुगवुप्पति भावो य" वही, गाथा 1809 णहि कत्ता कज्जं ति य, जुगवुधप्पतीय जीवकम्माणं। जुत्तो ववएसोऽयं जध लोए, गोविसाणाणं" वही, गाथा 1810 287 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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