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प्रश्न उपस्थित होते हैं, कि कर्म और आत्मा का सम्बन्ध कब से है, और कब तक रहेगा। यही शंका मण्डिक जी को हुई।
मण्डिक जी को सन्देह था कि जीव के बन्ध-मोक्ष है या नहीं? इस संशयोत्पत्ति का कारण वेदवाक्यों का विरोधाभास था। वेद-उपनिषदों में आत्मा के लिए अनेक प्रकार की कल्पनाएँ की हैं, और आत्मा को बन्ध-मोक्ष से रहित बताया। वह वाक्य इस प्रकार है - “स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा, न मुच्यते मोचयति वा, न वा एष बाह्यमभ्यन्तरं वा वेदः" अर्थात् यह आत्मा सत्वादि गुण रहित विभु है, उसे पुण्य-पाप का बन्ध है अथवा संसार नहीं है, वह कर्म से मुक्त नहीं, वह बाह्य-आभ्यन्तर कुछ नहीं जानता है।' इससे मण्डिक जी को यह प्रतीत हुआ कि - जीव को बन्ध और मोक्ष नहीं है। परन्तु इसके साथ दूसरा एक वाक्य ऐसा मिलता है कि - "न ह वै सशरीस्य प्रियाप्रिययोश्पहतिरस्ति अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रियये न स्पृशतः” अर्थात् सशरीरी जीव के प्रिय और अप्रिय अर्थात् सुख और दुःख का नाश नहीं होता है, किन्तु अशरीरी, अमूर्त जीव को प्रिय-अप्रिय का स्पर्श नहीं होता।
अतः यह संशय होता है कि जीव को सत्य में बन्ध-मोक्ष होगा या नहीं? तब मण्डिक जी तीन युक्तियाँ प्रस्तुत करते हैं। इसी चर्चा को विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद में जिनभद्रगणि ने समाहित किया, जिसमें श्रमण भगवान महावीर ने 'मण्डिक' की शंकाओं का समाधान किया।
मण्डिक पुत्र की शंका
मण्डिक पुत्र के मन में शंका थी की जीव का कर्म के साथ जो सम्बन्ध है वह सादि है या अनादि? वह सादि है तो प्रश्न होता कि पहले जीव तथा बाद में कर्म उत्पन्न होता है या पहले कर्म और फिर जीव उत्पन्न होता है? अथवा वे दोनों साथ ही उत्पन्न होते हैं? इस प्रकार से सादिबन्ध की सिद्धि नहीं होता, उसके लिए तीन युक्तियाँ हैं -
' छान्दोग्योपनिषद, 8/12/1 2 'तं मण्णसि जति बंधो जोगो जीवरस कम्मणा समयं ।
पुत्व पच्छा जीवो कम्मं व, सम्म व तो होज्जा" विशेष्यावश्यकभाष्य, गाथा 1805
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