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सूक्ष्म शरीर का घटक है। इसके एक एक स्कन्ध पर अनन्त अनन्त लिपियाँ लिखी हुई है । यही कर्म जो कार्मणा वर्गणा के पुद्गल है, वे जीव को अनेक गतियों में भेजते रहते हैं। कर्मवाद को मानने पर स्वभाववाद व एकगतिवाद का निराकरण हो जाता है । स्वभाववाद के अनुसार जीव का समान रूप से रहना ही उसका स्वभाव है, उसमें परिवर्तन नहीं होता। जो इस भव में पुरुष है तो वह परभव में भी पुरुष रहेगा । स्त्री - स्त्री के रुप में ही रहेगी, कोई परिवर्तन नहीं होगा ।
सुधर्मा स्वामी के मन में यह शंका थी कि जीव इस भव में जैसा होता है वैसा ही परभव में होता है, क्योंकि उन्होंने वेदों का अध्ययन किया, उनमें कुछ वाक्य ऐसे थे, जिससे सादृश्य को पुष्टि होती थी, किन्तु श्रमण भगवान महावीर ने उन पद - वाक्यों का सम्यक् अर्थ बताया, जिससे उनकी शंका का समाधान हुआ ।
प्रस्तुत अध्याय में सादृश्य के समर्थक तत्व स्वभाववाद तथा वैसादृश के समर्थक कर्मवाद का परिचय देते हुए इहलोक और परलोक को अनेकान्त दृष्टि से सादृश्य और वैसादृश्य दोनों रूपों में बताया है। आचार्य जिनभद्र गणि ने विशेषावश्यकभाष्य में जो तर्कपूर्ण युक्तियाँ दी हैं, उनका समावेश इस अध्याय में किया है।
सुधर्मा स्वामी की शंका और भ. महावीर का समाधान संक्षिप्त में इस प्रकार है
शंका : सुधर्मा स्वामी की शंका थी कि जैसा कारण है, वैसा कार्य होता है, अर्थात् जैसा बीज बोते हैं वही फल के रूप में उत्पन्न होता है, अतः जिस अवस्था में (नारी, पुरूष या पशु) मृत्यु होगी पुनः अगले भव में उसी रुप में उत्पत्ति होगी ।
समाधान: यह एकान्त रूप से निश्चित नहीं है, कभी-कभी प्रयत्न विशेष से विचित्रता भी देखी जाती है- जैसे- गाय या बकरी के बालों से घास का होना है, तथा अन्य कई विचित्र परिणाम दृष्टिगत है । अतः भवांकुर बीज मनुष्य नहीं अपितु कर्म है, अतः जैसे कर्म होंगे, वैसी गति मिलेगी।
शंका : कर्म की विचित्रता के क्या कारण है?
समाधान: कर्म की विचित्रता के पाँच कारण है
1. मिथ्यात्त्व, 2. अव्रत
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3. प्रमाद
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4. कषाय
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5. योग
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