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शंका : इस भव में जो फल पाने के लिए क्रिया की जाती है, वह तो प्रत्यक्ष देखी जाती है, जैसे कृषक क्रिया । किन्तु परभव के लिए जो दानादि क्रिया है उसका फल इस भव में नहीं मिलता, अतः दानादि क्रिया व्यर्थ है?
समाधान : यदि दानादि क्रिया को असफल माने तो, कर्म की सत्ता पर प्रश्न उठेगा, कर्म के अभाव में परलोक की सत्ता नहीं रहेगी, जब परलोक ही नहीं रहेगा तो समानता और विचित्रता का कोई लाभ नहीं रहेगा ।
शंका परभव का हेतु कर्म को न मान कर स्वभाव को मान ले तो क्या हानि है?
समाधान : किसी भी वस्तु की उत्पत्ति स्वयं नहीं होती, उसे कर्ता-करण की अपेक्षा रहती है, अतः जीव को परभव में ले जाने के लिए तथा शरीर के निर्माण में जो सहायक तत्व है, वह कर्म है ।
शंका: स्वभाव क्या है?
समाधान : स्वभाव वस्तु विशेष नहीं है, क्योंकि वह अनुपलब्ध है स्वभाव निष्कारण नहीं है, क्योंकि निष्कारण मानने पर वह सादृश्यता का हेतु नहीं रहेगा। स्वभाव वस्तु का धर्म भी नहीं है क्योंकि वह सदा एक समान नहीं रहता है। स्वभाव मूर्त तत्व है, जो कर्म का ही दूसरा नाम है।
जगत् में जो परिणमन
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किसी भी वस्तु तत्त्व
व्यावहारिक स्तर पर यह मानने में कोई बाधा नहीं कि या परिवर्तन होता है उसमें स्वभाव का महत्त्वपूर्ण अवदान होता है के स्वस्वभाव की उपेक्षा सम्भव नहीं है, किन्तु यदि हम जगत् के सम्पूर्ण घटनाक्रम के पीछे स्वभाव को ही आधार मानेंगे तो फिर वस्तुओं में या व्यक्तियों में होने वाले विकारों को नहीं समझाया जा सकेगा। स्वभाव वस्तु का निजी गुण है किन्तु पर के निमित्त से उसमें विभाव भी होता है, स्वभाव को विभाव में परिवर्तन करने वाला कर्म है। यदि व्यक्ति में वैभाविक परिवर्तन स्वीकार नहीं करते हैं तो बन्धन- मुक्ति, पुण्य-पाप आदि की अवधारणाएँ निरर्थक हो जायेगी प्रभु महावीर ने स्वभाव के साथ-साथ कर्म रुपी विभाव का भी प्रतिपादन किया है।
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