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भगवान महावीर ने इस शंका का समाधान दिया कि- परभव में जीव की उत्पत्ति का कारण कर्म है, कर्म के अभाव में निष्कारण उत्पत्ति मानने पर सादृश्यता भी घटित नहीं होती। यह निश्चित है कि उत्पत्ति निष्कारण नहीं होती वैसे ही दानादि क्रिया भी निष्फल नहीं होती।
समीक्षा
जैन दर्शन आत्मा, कर्म एवं पुनर्जन्म को मानने वाला दर्शन है। उसके अनुसार विश्व के प्रत्येक प्राणी में आत्मा और प्रत्येक संसारी आत्मा कर्मों से बद्ध है, आवृत्त है। यही कर्म पुनर्जन्म का मूल कारण है। प्रत्येक आत्मप्रदेश के साथ कर्म-पुद्गलों का संयोग होता है और कर्म के उत्पन्न प्रभाव से आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में गमन करती रहती है। कर्म अपने आप में जड़ है, फिर भी आत्मा के साथ बद्ध होने से उसमें आत्मा को प्रभावित करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। कर्म को हम 'चैतसिक - भौतिक बल' (Phycho-Physical Force) के रूप में जान सकते हैं। यही बल आत्मा को पुनर्जन्म लेने के लिए बाध्य करता है।
कर्म का विधान कहीं बाहर से आरोपित नहीं किया गया है, बल्कि यह हमारी अपनी ही प्रकृति में कार्य करता है। मानसिक आदतों का निर्माण, बुराई की ओर बढती हुई प्रवृत्ति का दृढ़ होता जाने वाला प्रभाव जो आत्मा की सशक्त स्वतंत्रता की जड खोखली करता है। कोई भी प्राणी कर्मफल को भोगे बिना छुटकारा नहीं पा सकता है। कर्मविधान वैयक्तिक उत्तरदायित्व एवं भविष्यजीवन की यथार्थता पर बल देता है।
कर्म का सिद्धान्त बहुत प्राचीन है। किसी भी व्यक्ति का इतिहास उसके इस जन्म से प्रारम्भ नहीं है बल्कि जन्मों से चला आ रहा होता है, उन सभी जन्मों में साथ रहने वाला कर्म है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर जब दृष्टिपात करते हैं तो निश्चत हो जाता है कि कर्ग ही जीव को शवागण कराता है। यह शरीर रथूल है, यह सूक्ष्ग कोशिकाओं बायोलोजिकल सेल्स से निर्मित है, लगभग 60-70 खरब कोशिकाएं है, उन कोशिकाओं में गुणसूत्र होते हैं, प्रत्येक गुणसूत्र 10 हजार जीन से बनता है, वे संस्कार सूत्र हैं, संस्कार सूत्रों से क्रोमोसोम बनता है, आज का शरीर विज्ञानी या जीव विज्ञानी इस विश्व की विचित्रता या तरतमता का कारण 'जीन' को मानता है, किन्तु कर्मशास्त्र की भाषा में 'असमानता' का कारण कर्म है। 'जीन' तो सिर्फ स्थूल शरीर का घटक है, किन्तु 'कर्म'
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