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ने अपने तर्क जड पदार्थों के संदर्भ में दिये है। कर्मसिद्धान्त का नियम जड-जगत के लिए नहीं है, अतः जड-जगत के दिये गये तर्क उस पर कैसे लागू हो सकते है? यदि हम जैनदृष्टिकोण के आधार पर उन्हें जीवनयुक्त माने तो भी यह आक्षेप असत्य ही सिद्ध होता है, क्योंकि जीवनयुक्त मानने पर यह भी सम्भव है कि उन्होंने पूर्व जीवन में कोई ऐसा शुभ या अशुभ कर्म किया होगा, जिसका परिणाम वे प्राप्त कर रहे हैं। इस प्रकार दोनों दृष्टियों से यह आक्षेप उचित प्रतीत नहीं होता। कर्मसिद्धान्त पर दूसरा आक्षेप करते है
सभी प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं, पर कोई बुरे कर्म का फल नहीं चाहता है, और कर्म स्वयं जड होने से किसी चेतना की प्रेरणा के बिना फल देने में असमर्थ है, इसलिए कर्म को न मानकर ईश्वर को फल देने वाला मान सकते है। इस आक्षेप का समाधान इस प्रकार किया है -
प्राणी जैसा कर्म करते हैं, वैसा फल उनको कर्म के द्वारा ही मिल जाता है। कर्म जड है और प्राणी अपने किये बुरे कर्म का फल नहीं चाहते हैं। पर चेतन के संग से कर्म में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिससे वह अपने अच्छे या बुरे विपाकों को नियत समय पर प्रकट करता है। फल देने के लिए ईश्वर की प्रेरणा मानने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सभी जीव चेतन है, वे जैसा कर्म करते हैं, उसके अनुसार उनकी बुद्धि वैसी ही बन जाती है, और जीव को कर्मानुसार फल मिलता है। जीव के चाहने से या न चाहने से फल नहीं मिलता।'
विशेषावश्यकभाष्य में गणधरवाद के अन्तर्गत सुधर्मा स्वामी जी कर्म को विचित्रता का कारण न मानकर स्वभाव को मानते है, उनका मानना है कि इस भव में जो खेती आदि कार्य किए जाते है उनका फल तत्काल मिलता है, किन्तु परभव के लिए जो दानादि कर्म किये जाते है, उसका कुछ भी फल नहीं मिलता, अतः परभव में विचित्रता का कोई कारण नहीं है, इसलिए मनुष्यादि का जैसा रूप इस भव में है वैसा ही परभव में प्राप्त होता है। उसमें विचित्रता की कोई संभावना नहीं है।
' डा. सागरमलजी जैन, जैन-बौद्ध और गीता का अध्ययन, वही, पृ. 325
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