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वहां निष्फल है। करना-कराना कुछ है ही नहीं, क्योंकि परिवर्तन सम्भव नहीं है, फिर क्या है? इस तरह एक गतिवादी अपने पक्ष का कथन करते हैं किन्तु इस पक्ष से पूक्ति प्रश्न उपस्थित होते हैं जिसका कोई निराकरण संभव नहीं है। अतः यह पक्ष सम्यक् नहीं है। इससे यह सिद्ध होता है कि जीव को गति के अनुसार जन्म नहीं अपितु कर्म के अनुसार जन्म मिलता है। कर्मानुसार, योनि मिलती है।'
कर्म के अभाव में परभव नहीं मान सकते है, यह तथ्य विशेषावश्यकभाष्य में भगवान महावीर ने इस प्रकार दिया कि- जिस प्रकार घड़े के निर्माण में कर्ता करण आदि सामग्री की अपेक्षा है, उसी प्रकार जीव को तथा उसके परभव के शरीर आदि के निर्माण को करण की अपेक्षा है। घडे के निर्माण में कुम्भकार प्रमुख है, वैसे ही शरीरादि के निर्माण में कर्म प्रमुख है।
इस भव में जैसी शुभ-अशुभ विचित्र क्रिया करते हैं, विचित्र कर्म करते हैं, उसी के अनुरूप ही परभव में विचित्र फल मिलता है। कर्मसिद्धान्त पर आक्षेप और उनका समाधान
___ कर्मसिद्धान्त को अस्वीकार करने वाले विचारकों ने कुछ तर्क प्रस्तुत किये हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ त्रिष्टिशलाकापुरुष चरित में उन विचारकों के द्वारा दिये जाने वाले कुछ तर्कों का दिग्दर्शन कराया है। उनका तर्क है कि - एक प्रस्तर खण्ड जब प्रतिमा के रूप में निर्मित हो जाता है तब स्नान, अंगराग, माला, वस्त्र, और अलंकारों से उसकी पूजा की जाती है। वहाँ यह प्रश्न उठता है कि उस प्रतिमारूप प्रस्तरखण्ड ने कौनसा पुण्य किया था? तथा अन्य प्रस्तरखण्ड जिस पर खडे रहकर लोग मल-मूत्र विसर्जन करते हैं, उसने कौनसा पाप-कर्म किया था? यदि प्राणी कर्म से ही जन्म ग्रहण करते है और मरते हैं, तो फिर जल के बुदबुद किस शुभाशुभ कर्म से उत्पन्न होते है और विनष्ट होते है।
कर्मसिद्धान्त के विरोध में दिया गया यह तर्क वस्तुतः एक भ्रान्त धारणा पर खडा हुआ है। कर्म सिद्धान्त का नियम शरीरयुक्त चेतन प्राणियों के लिए है, जबकि आलोचक
' अरुणविजय जी मा., कर्म की गति न्यारी, पृ. 14-15 * अह इह भव सरिसो, परलोगो वि जइ सम्मओ तेणं।
कम्मफलं पि इहभव सरिसं, पडिवज्ज परलोए।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1781
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