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आचारांगसूत्र के प्रथम अध्ययन में “अप्पणो अत्थितपद" के प्रथम पद में यह उल्लेख किया है कि - आत्मा को पूर्वजन्म का ज्ञान जातिस्मरण से होता है। आत्मा सर्व दिशाओं और अनुदिशाओं में गति करती है, यहाँ जन्मान्तर के लिए जाते हुए जीव की गति का निर्देश है। जिसको अन्तराल गति कहते हैं। इस प्रकार जैनदर्शन प्राचीनकाल से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को स्वीकार करता है।'
नन्दीसूत्र के अनुयोग प्रकरण में "मूल पढ़माणुओगे” में तीर्थंकरों के भवान्तरों का वर्णन मिलता है। क्योंकि तीर्थंकरों का विकास एक जन्म की कहानी नहीं है। पूर्वभवों के उल्लेख के साथ तीर्थंकरत्व की उपलब्धि, यह सब कर्म-सिद्धान्त की प्रस्थापना के लिए बताया है।
सुखविपाक और दुःखविपाक सूत्र में पूर्वकृत शुभ (पुन्य) और अशुभ (पाप) कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त हुए सुखद दुःखद जन्म का तथा उसके पश्चात् उस जन्म में (प्राप्त जन्म) अर्जित शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप अगले जन्म में स्वर्ग-नरक प्राप्ति रूप फल का निरूपण सुवाहुकुमार या मृगापुत्र के माध्यम से स्पष्ट किया है।
इसी प्रकार समरादित्य केवली की कथा भी पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सम्बन्धी अनेक घटनाओं से परिपूर्ण है। समरादित्य के साथ साथ द्वेषवश उनका विरोधी अग्निशर्मा सतत् कई जन्मों तक विभिन्न योनियों में जन्म लेकर वैर वसूल करता है।
यह अटल सिद्धान्त है कि- अतीत (पूर्वजन्म) अथवा अनागत (पुनर्जन्म) जीवों के अपने-अपने कृतकर्मों के अनुसार ही होता है। सभी प्राणी अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण विभिन्न गतियों-योनियों में परिभ्रमण करते रहते है। किन्तु एक गतिवाद वालों की मान्यता है कि यह जीव जिस योनि में जन्मा है, उसी योनि में सदाकाल रहता है। पुनः पुनः मृत्यु पाकर फिर से उसी योनि में उसी स्वरूप में जन्म लेता है, अर्थात भूतकाल में जैसा जन्म था, मृत्यु के बाद भविष्य में वैसा ही जन्म लेता है। यदि वह मनुष्य है तो मनुष्य ही बनेगा। अश्व मृत्यु पाकर अश्व ही बनता है। गधा मृत्यु पाकर गधा ही बनता रहेगा, चाहे वह हजार लाख या करोडों जन्म करें तो भी वह बार-बार अश्व ही बनेगा, गधा, गधा ही
'आचारांगसूत्र, सूत्र 2, पृ. 1 'नन्दीसूत्र, सूत्र 207, पृ. 189
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