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________________ इस प्रकार जीव जिस प्रकार के कर्म बन्धन करता है, उसे उसी प्रकार की गति मिलती है। पर यह निश्चित नहीं है कि मनुष्य मरकर पुनः मनुष्य ही बनेगा, या तिर्यञ्च योनि से जीव मरकर पुनः तिर्यञ्चयोनि में ही जन्म लेगा, ऐसा एकान्त रूप से सिद्धान्त नहीं है, क्योंकि प्राचीन इतिहास में कई उदाहरण मिलते है जिससे यह सिद्ध होता है प्राणी किस प्रकार अनेक योनियों में जन्म लेता रहता है। उत्तराध्ययन सूत्र में चित्र-सम्भूति की कथा वर्णित है उसमें उनके 6 भवों का चित्रण किया है : गोपाल पुत्रद्वय ने मुनि दीक्षा ग्रहण की, आयुष्य पूर्ण कर मुनि जीवन में __ जुगुप्सावृत्ति के कारण दासीपुत्र हुए। सर्पदंश से मरकर वन्य मृग बने । शिकारी के बाण से मरकर राजहंस हुए। भूतदत्त चाण्डाल के पुत्र हुए, नाम रखा गया चित्र और सम्भूति। वहां से सम्भूत ब्रम्हदत्त चक्रवर्ति बना और चित्र अपनी संयमाराधना के फलस्वरूप श्रेष्ठीपुत्र बना। ब्रम्हदत्त चक्रवर्ति नरक में और श्रेष्ठीपुत्र जो मुनि बने वे मोक्ष में गये।' इस प्रकार प्रत्येक भव में अलग-अलग योनियाँ व गति मिली। संजयीय अध्ययन में स्पष्टतः पुनर्जन्म और शुभाशुभ कर्म का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध रूप गठबन्धन बताते हुए कहा गया है – “जो सुखद या दुःखद कर्म जिस व्यक्ति ने किये है, वह अपने उन कर्मों से युक्त होकर परभव में जाता है, अर्थात् - अपने कृतकर्मानुसार पुनर्जन्म पाता है। उन्नीसवें, मृगापुत्र अध्ययन भी पूर्वजन्म तथा पुर्नजन्म को स्पष्ट करता है। इसमें मृगापुत्र अपने पूर्वजन्म का तथा देवलोक के सुखों का साथ ही नरक ओर तिर्यञ्चगति में प्राप्त हुई भयंकर वेदनाओं का वर्णन करता है।' उत्तराध्ययनसूत्र, 13/6 उत्तराध्ययनसूत्र, 18/17 उत्तराध्ययनसूत्र, 20/5 275 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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