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प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार इन योनियों में जन्म लेता है। स्थानांग सूत्र में इन गतियों में जाने के कारण भी बताये है कि अमुक कर्म करने से प्राणी इस गति में जाता है।
नरक गति के बन्ध-कारण
महारम्भ - प्रमत्तयोग के द्वारा त्रस जीवों की हिंसा पर बडे पैमाने करना। 2. महापरिग्रह – वस्तुओं पर अत्यन्त मूर्छाभाव व आसक्ति रखना । 3. पञ्चेन्द्रियवध - प्रमत्तयोग पूर्वक मारने की बुद्धि से वध करना।
मांसाहार - मांस, मछली, अंडों आदि का सेवन करना। निम्न चार तिर्यञ्च गति के बन्ध कारण है -
1. माया : - छल कपट करना 2. गूढ माया - हृदय में किसी बात को छिपाकर उपर से अच्छा व्यवहार करना। 3. असत्य भाषण करना 4. झूठे तौल और झूठे माप रखना। मनुष्य गति के बन्ध कारण चार हैं -
उत्तम भद्र प्रकृति होने से। 2. स्वभाव में विनयभाव होने से। 3. दयालु स्वभाव होने से।
स्वभाव में मात्सर्य न होने से।
देव गति में जाने के चार कारण है -
सरागसंयम - संयम ग्रहण कर लेने पर भी राग का अंश रहना। संयमासंयम - कुछ संयम कुछ असंयम बालतप - सम्यग्ज्ञान से रहित तप। अकामनिर्जरा - अनिच्छा से, दबाव से, पराधीनता से कष्ट सहना।
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(क) स्थानांगसूत्र, 4/160 (ख) कर्मविज्ञान, भाग 4, वही, पृ. 338
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