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शरीर की उत्पत्ति विभिन्न कर्मों के कारण होती है। पूर्व शरीर से किये हुए कर्मों का फल ही जन्मों का कारणभूत है। पंचभूतों से अपने आप देह की उत्पत्ति नहीं होती । भौतिकवादी कहते है कि मात्र पांच भूतों के संयोग से शरीर बन जाता है, तो फिर शरीरोत्पत्ति में निमित्त कारणरूप पूर्व कर्म मानने की आवश्यकता कहाँ है? जैसे व्यक्ति पुरुषार्थ करके भूतों से घड़ा बनाता है वैसे ही स्त्री-पुरुष के संयोग होने पर भूतों से देह की उत्पत्ति हो जाती है? इस प्रश्न का न्यायवैशेषिक उत्तर देते हैं कि घटादि की उत्पत्ति में आहार आदि निमित्त की जरूरत नहीं होती, जबकि देहोत्पत्ति में इनकी आवश्यकता है। शुक्र - शोणित के संयोग से हमेशा शरीरोत्पत्ति नहीं होती, उसमें पूर्वकर्म की भी अपेक्षा रहती है । अतः सिद्ध होता है कि कर्मों के कारण विभिन्न जाति व योनियों में देह की प्राप्ति होती है । '
गीता में कर्म और पुनर्जन्म
गीता भी आत्मा की अमरता के साथ पुनर्जन्म को स्वीकार करती है । श्रीकृष्ण कहते है जैसे जीवात्मा को इस शरीर में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएं प्राप्त होती है, वैसे ही इसे अन्य शरीरों की प्राप्ति भी होती है । जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को बदलकर नवीन वस्त्र ग्रहण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीरों को छोडकर नये शरीर ग्रहण करता है । 2
गीता में पुनर्जन्म को सिद्ध करने वाले कई तथ्य मिलते हैं जैसे कि जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है ।
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इसी बात को शारीरिक अवस्थाओं से परिवर्तन से स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार शरीर में कुमार, युवा एवं वृद्धावस्था होती है, उसी के समान जीवात्मा को नए शरीर की प्राप्ति होती है। इससे यह स्पष्ट होता है जीवत्व स्थिर है किन्तु शरीर बदलता रहता है । पुनर्जन्म को मानने पर गीता यह भी सिद्ध करती है कि जीव कर्म के कारण विभिन्न योनियों में जन्म लेता है। यदि व्यक्ति की मृत्यु सत्ववृद्धिकाल
(शुभभाव ) में होती
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मोतीचन्द कापड़िया, जैनदृष्टि ए कर्म, (श्री महावीर जैन विद्यालय), पृ. 23
2 गीता, अध्याय 2/22
aflar, 2/27
गीता, 2/13
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