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________________ जीव की जैसी प्रति होती है, जोरो सार नि। में है, . कर्मसंस्कार, कर्माशय या कर्म कहते है। ये कर्म चार प्रकार के हैं - कृष्ण, शुक्लकृष्ण, शुक्ल, अशुक्लअकृष्ण। अनुभवजन्य संस्कार वासना है और प्रवृत्ति जन्य कर्मसंस्कार कर्म है, वासना स्मृति को जन्म देती है और कर्म (क्लेश युक्त होने पर) जाति, आयु और भोगरूप विपाक को जन्म देता है। इस प्रकार कर्म की सिद्धि होती है।' न्याय-वैशेषिक दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म न्याय-वैशेषिक आत्मा को नित्य मानते है, नित्य का अर्थ है अनादि अनन्त। अर्थात् आत्मा वर्तमान देह की उत्पत्ति से पहले और बाद में भी अस्तित्व रखती है। जिससे पूर्वजन्म और पुनर्जन्म दोनों की सिद्धि हो जाती है। न्यायसूत्र में बताया है किमिथ्याज्ञान से रागद्वेषादि, रागद्वेषादि दोषों से प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति से जन्म और जन्म से दुःख होता है। जब तक धर्माधर्म प्रवृत्तिजन्य संस्कार बने रहेंगे, तब तक शुभाशुभ कर्मफल भोगने के लिए जन्म-मरण का चक्र चलता रहेगा जिससे जीव नये-नये शरीर ग्रहण करता रहेगा। जीवों में जो भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीर, अलग-अलग शक्ति और स्वभाव हम देखते है, उस वैचित्र्य का कारण उस जीव के द्वारा किये गये कर्म है। पूर्वजन्मों के विचित्र कर्मों को माने बिना जीवों में जो भेद होता है, वह स्पष्ट नहीं हो सकता। एक ही माता-पिता के समान परिस्थिति में पले हुए बालकों में भी भेद दिखाई देता है, वह भेद पूर्वजन्म के कर्मों के कारण है। जहाँ पूर्वजन्म मानते है वहां पुनर्जन्म को मानना आवश्यक है। शरीर की उत्पत्ति के साथ आत्मा की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही शरीर के नाश के साथ आत्मा का नाश भी नहीं होता । आत्मा तो एक शरीर को छोडकर नया शरीर धारण करती है। पूर्व शरीर कर त्याग मृत्यु है और नये शरीर का धारण करना जन्म है। 'योगदर्शन व्यासभाष्य, 219, 4/10 ' दुःख-जन्म-प्रवृत्ति-दोष-मिथ्याज्ञानानामुत्तरोपाये।। न्यायसूत्र, 1/1/2 271 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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