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छोडकर मरने के बाद अकुशल कर्म से दुर्गति में जाता है, और जो मनुष्य कुशल कर्म करता है, वह सुगति में जाता है।'
बौद्धदर्शन अपरिवर्तनशील नित्य आत्मा को नहीं मानता है फिर भी कर्म और पुनर्जन्म को मानता है। इस दृष्टि से उसमें तीन प्रकार के कर्म माने गये है : 1. दृष्टधर्म-वेदनीय : इसी जन्म में फल देने वाला। 2. उपपद्य-वेदनीय : अगले जन्म में फल देने वाला। 3. अपरपर्याय वेदनीय : अगले जन्म के पश्चात् किसी भी जन्म में फल देने वाला। बौद्ध दर्शन में योनियाँ भी मानी है, जिन्हें भूमि कहा जाता है - ये भूमियाँ चार है :
अपाय भूमि : दुर्गतियाँ – (नारक, तिर्यञ्च, प्रेत और असुर) कामसुगत भूमि : सुगतियां - (मनुष्य और कुछ देव जातियां) रूपावचर भूमि : (विशिष्ट देव जातियां) अरूपावचर भूमि।
तथागत बुद्ध कर्म और पुनर्जन्म को स्पष्टतः स्वीकार करते है – “कर्म से विपाक प्रवर्तित होते हैं और स्वयं विपाक कर्म सम्भव है, कर्म से पुनर्जन्म होता है, इस प्रकार यह संसार प्रवर्तित होता रहता है। इस प्रकार बौद्धदर्शन में कर्म और पुनर्जन्म का अटूट सम्बन्ध बताया है। पातंजल योग दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म :
योग-दर्शन पुनर्जन्म स्वीकार करता है- जैसे नवजात शिशु को भयंकर पदार्थ देखते ही भय और दुःख होता है, जबकि इस जन्म में उसके कोई संस्कार नहीं, इसलिए पूर्वजन्म रुप 'कर्म' को मानना आवश्यक है। यह अनुमान पूर्वजन्म को सिद्ध करता है, पूर्वजन्म सिद्ध होने पर पुनर्जन्म भी सिद्ध होता है।
मज्झिमनिकाय, 3/4/5 * डा. सागरमल जी, जैन बौद्ध ... अध्ययन, वही, पृ. 252 कम्मा विपाका बत्तन्ति, विपाको कम्मसम्भवो। कम्मा पुनब्भवो होति, एवं लोको पवत्ततीति!। बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ. 478
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