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उपनिषदों में कर्ग और पुनर्जन्ग का उल्लेख
बृहदारण्यक उपनिषद में बताया है कि जो आत्मा जैसा आचरण करता है जैसा कर्म करता है, वैसा ही वह बनता है। सत्कर्म करता है तो अच्छा बनता है और पाप कर्म करने से पापी बनता है। पुण्य कर्म करने से पुण्यशाली बनता है। जैसा कर्म होता है तद्नुसार वह अगले जन्म में बनता है।'
कठोपनिषद में बताया है कि "आत्माएं अपने-अपने कर्म के अनुसार और श्रुत के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेती है।
कौषीतकी उपनिषद में कहा गया है कि "आत्मा अपने कर्म और विद्या के अनुसार कीट, पतंगा, मत्स्य, पक्षी, बाघ, सिंह और सर्प मानव या अन्य किसी प्राणी के रूप में जन्म लेता है। छान्दोग्य उपनिषद् में भी कहा है - जिसका आचरण रमणीय है, वह मरकर शुभ-योनि में जन्म लेता है और जिसका आचरण दुष्ट होता है वह कूकर-शकर, चाण्डाल आदि अशुभ योनियों में जन्म लेता है। बौद्ध दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म
भगवान बुद्ध के नैतिक आदर्शवाद की आधारशिला है कर्म सिद्धान्त । प्रतीत्यसमुत्पाद का चक्र कर्म के आधार पर चलता है। द्वादशांग भवचक्र की धुरी कर्म सिद्धान्त पर आधारित है। कर्म और फल के पारस्परिक सम्बन्धों के कारण भवचक्र घूमता रहता है। पुनर्जन्म को स्वीकारने पर ही यह व्यवस्था चलती है। जिन कर्मों का फल इस जन्म में नहीं मिला, उन कर्मों का फल अगले जन्मों में मिलता है। बोधिप्राप्त करने के बाद बुद्ध को अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हुआ था। उन्होंने अपने-अपने कर्मों से प्रेरित प्राणियों को विविध योनियों में जाते-आते प्रत्यक्ष देखा।
कर्म ही प्राणियों को हीन और उत्तम बनाता है, “जैसा कर्म वैसा फल" | यदि मनुष्य हिंसा, क्रोध व ईर्ष्या करता है, लोभ या अभिमान करता है, वह वर्तमान शरीर को
बृहदारण्यक उपनिषद्, 4/4/3-5
कठोपनिषद्, 21517 'कौषीतकी उपनिषद्, 2/2 * छान्दोग्योपनिषद् 5/10/7
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