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________________ रेतीली भूमि को भी अपने पुरूषार्थ से रासायनिक मिश्रणों द्वारा उपजाऊ बना दिया है, अतः स्वभाववाद का आश्रय लेकर निराशावाद की स्थान देना उचित नहीं है। इस प्रकार एकान्त स्वभाववाद से कई समस्याएँ उपस्थित होती हैं, व्यक्ति का जैसा पुरूषार्थ व जैसे कर्म होंगे उसे वैसा ही बनना पडेगा। __सादृश्यवाद को मानने पर यह एक भ्रान्ति हो जायेगी कि जो मनुष्य है, वह मरकर पुन: मनुष्य ही बनेगा, तब वह कितने ही अनैतिक आचरण करें या पापाचार करें, कोई भय की बात नहीं क्योंकि उसे ज्ञात है कि मुझे नरक में नहीं जाना पडेगा, अतः धर्म-क्रिया करने की आवश्यकता ही नहीं है, इस तरह अनैतिकता व्याप्त हो सकती है। स्वभाववाद का आलोचनात्मक अध्ययन करते हुए विशेषावश्यकभाष्य में बताया है कि - स्वभाव मूर्त है या अमूर्त? यदि मूर्त है तो कर्म और स्वभाव में कोई अन्तर नहीं रहेगा, और यदि अमूर्त है तो उपकरणरहित होने शरीरादि का निर्माण नहीं कर सकता। स्वभाव को कारण-रहित मानो तो परभव में सादृश्य कैसे घटित होगा? सादृश्य के समान वैसादृश्य भी कारण-रहित हो जाएगा। जबकि बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। __स्वभाव को वस्तु धर्म मानने पर वह सदा एक जैसा नहीं रह सकता, ऐसी दशा में वह सादृश्य शरीदादि को किस प्रकार उत्पन्न कर सकेगा? अतः भगवान महावीर ने “स्वभाव” को “कर्म” का ही अपर नाम माना है। तब यह सिद्ध होता है कि जगतविचित्रता का कारण कर्म है। इहलोक और परलोक के वैचित्र्य का आधार : कर्म सिद्धान्त जगत का वैचित्र्य अर्थात जगत के प्राणियों की विविध रूपता विषमता का आधार कर्मवाद है। जैन दर्शन का यह निश्चित सिद्धान्त है कि स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएं समान है- “एगे आया"। जब सभी आत्माएं समान है तो उनका रूप एक सा होना चाहिए। इतनी विरूपता और विचित्रता क्यों? इसका समाधान इस प्रकार दिया गया कि आत्माओं की यह विभिन्नता, विविधता या विरूपता स्वयं की नहीं है। वह कर्म नामक 'कर्मविज्ञान, भाग 1, पृ. 306 'गणधरवाद, दलसुखभाई, पृ. 45 267 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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