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इन सब समस्याओं का कारण है- एकान्त स्वभाववाद को मानना। जैन कर्म सिद्धान्त में भी स्वभाव का महत्वपूर्ण स्थान है। कर्मसिद्धान्त यह बताता है कि - मूल स्वभाव का अवरोध हो जाना ही बन्धन (कर्मावरण) है, और कर्मावरण का अलग हट जाना और मुल स्वभाव का प्रकट हो जाना ही मुक्ति है किन्तु एकान्त स्वभाववाद को मानना युक्तिसंमत नहीं है।'
एकान्त स्वभाववाद की समीक्षा - स्वभाववादी यदि यह कहे कि जगत के समस्त कार्य को निष्पन्न करने में स्वभाव ही एकमात्र कारण है, तब उनका कथन एकान्त होने से मिथ्या होगा। प्रत्येक पदार्थ में अपने द्वारा सम्भावित कार्य करने का स्वभाव होने पर भी उस कार्य की निष्पत्ति या विकासशीलता केवल स्वभाव से नहीं हो सकती, उसके लिए अन्य कारण-सामग्री भी अपेक्षित होती है। मिट्टी के पिण्ड में घड़े उत्पन्न करने का स्वभाव होने पर भी उसकी उत्पत्ति कुम्भकार, दण्ड, चक्र, चीवर आदि पूर्ण सामग्री के होने पर ही हो सकती है। उस घडे को पकाने, ऊपर से रंगने आदि विकास का कार्य पुरूषार्थ से होता है, स्वभाव से नहीं। कमल की उत्पत्ति कीचड़ से होती है, अतः पंक आदि की सामग्री की, कमल की सुगन्ध और उसके मनोहर रुप के प्रतिहेतुता स्वयंसिद्ध है, उसमें स्वभाव को मुख्यता देना उचित नहीं है।
यह ठीक है कि किसान का पुरुषार्थ खेत जोतकर बीज बो देने तक है, आगे अंकुरों का निकलना तथा उससे क्रमशः वृक्ष के बन जाने, रुप असंख्य कार्य-परम्परा में उसका साक्षात् कारणत्व नहीं है, परन्तु कृषक का यदि बीज बोने का प्रयत्न नहीं होता तो, बीज का वृक्ष बनने का स्वभाव व्यर्थ होता।
स्वभाववाद को अहैतुकवाद मानना भी प्रत्यक्ष और अनुमान से बाधित है, क्योंकि जगत में प्रत्येक कार्य किसी न किसी कारण - समाग्री से निष्पन्न होता देखा गया है। इसी प्रकार स्वभाववाद को लेकर निराशा का अवलम्बन लेना भी उचित नहीं है कि इस पदार्थ का स्वभाव अमूक पदार्थ बनने का है ही नहीं, तब फिर पुरूषार्थ करने से अथवा काल की प्रतीक्षा करने या भाग्य कोसने से क्या होगा? रेतीली जमीन में कपास, गन्ना, गेहूँ आदि पैदा करने का स्वभाव नहीं है, किन्तु आज के वैज्ञानिकों ने रेगिस्तान की
(क) डा. सागरमल जी, जैन-बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 267 (ख) डा. महेन्द्रकुमार 'न्यायाचार्य', जैन दर्शन, पृ. 82
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