SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वभाववाद की समीक्षा : स्वभाववाद का निरसन करते हुए न्याय कुसुमाञ्जलि में लिखा है कि “हेतु अथवा उत्पत्ति का निषेध नहीं हो सकता है। स्व से स्व की उत्पत्ति अथवा किसी अलीक (असत्) पदार्थ से भी कार्य की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती स्वभाव से भी कार्य की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती” क्योंकि कार्यों की अवधि नियत होती है। । यही बात सुधर्मा स्वामी ने विशेषावश्यकभाष्य में रखी है - घटादि कार्य में कुम्भकार, चक्र आदि रूप कर्ता और करण प्रत्यक्ष सिद्ध है, अतः उनको स्वभावगत मानने में आपत्ति नहीं है, किन्तु शरीरादि कार्य तो बादल के विकार के समान स्वाभाविक है, अतः कर्म-रूप करण की आवश्यकता नहीं है। एकान्त स्वभाववाद को मानने पर कई विसंगतियाँ होती हैं, जैसे कि - 1. स्वभाववाद जागतिक वैचित्र्य की व्याख्या कर सकता है, लेकिन नैतिकता के क्षेत्र में वह पूर्णतया तर्कसंगत सिद्ध नहीं होता, क्योंकि स्वभाववाद मानने पर नैतिक उत्तरदायित्व की समस्या उत्पन्न होगी। 2. स्वभाववाद जीवन में पुरूषार्थ की अवहेलना करेगा और पुरूषार्थ के अभाव में नैतिक प्रगति एवं नैतिक आदेश का कोई अर्थ नहीं रहेगा। यदि स्वभाववाद यह मानता हे कि स्वभाव निमित होता है तो वह निरपेक्ष सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता, और फिर स्वभाव किस कारण बनता है, यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण होगा। स्वभाववाद यदि यह मान लेता है कि सब कुछ 'स्वभाव से होता है तो आत्मा में विभाव मानना उचित नहीं होगा, जिससे अनैतिक आचरण, असद्प्रवृति, ज्ञान-शक्ति की सीमितता आदि के कारण बताने कठिन हो जायेंगे, क्योंकि सब कुछ स्वभावजन्य है। 5. सदाचरण और दुराचरण यदि स्वभावजन्य है तो फिर दुराचारी कभी भी सदाचारी नहीं हो सकेगा और इस प्रकार नैतिक विकास अथवा मुक्ति का कोई भी अर्थ नहीं रहेगा। ' डा. श्री नारायण मिश्र, न्यायकुसुमांजलि (प्रथम स्तबक), पृ. 23 * गणधरवाद, दलसुख भाई, पृ. 98 265 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy