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________________ बीज है, वैसा ही फल होगा। स्वभाववादी अपने पक्ष का समर्थन करने के लिये ओर भी उदाहरण देते है – कोई कितना भी बल लगावे किन्तु वटवृक्ष पर आम का फल, गुलाब के पौधे पर चम्पा, चमेली आदि के फूल उत्पन्न नहीं हो सकते, सभी वस्तुएं सभी प्राणी और सभी घटनाएं अपने-अपने स्वभाव को लेकर होती है। कोई भी द्रव्य अपना स्वभाव नहीं छोडता। जिसका जैसा स्वभाव होता है वैसा ही उसका परिणाम या परिपाक होता है। गोम्मटसार, बुद्धचरित और सूत्रकृतांग टीका में कहा गया है - बबूल आदि के कांटों को तीखा कौन करता है? मृग, मोर तथा अन्य पक्षियों को विचित्र रंगों से कौन चित्रित करता है? इन सबका एक मात्र कारण स्वभाव है। अतः इस सृष्टि की विचित्रता का कारण कर्म, काल, ईश्वर आदि अन्य कोई नहीं दिखते है। विश्व में सब कुछ स्वभाव से निर्हेतुक होता है। दूसरे के प्रयत्न या इच्छा को इसमें अवकाश नहीं है। _शास्त्रवार्ता समुच्चय में स्वभाववाद का पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा गया है - जीव का गर्भ में प्रविष्ट होना विविध अवस्थाओं को प्राप्त करना, शुभ-अशुभ अनुभवों का होना स्वभाव के बिना शक्य नहीं है। इसलिए समस्त घटनाचक्र का कारण स्वभाव ही है। जगत के सभी उस पदार्थ से रहते हैं और किसी की इच्छा के बिना ही फिर स्वभाव से निवृत हो जाते हैं। जगत में जो कुछ भी घटित हो रहा है उसका आधार वस्तु का निजस्वभाव है। स्वभाववादी को किसी सहायता की अपेक्षा नहीं हैं। चार्वाक दर्शन की मान्यता भी यही है, वह विश्व को भूतों के आकस्मिक संयोजन का फल मानता है, भूतों में विश्वनिर्माण की शक्ति मौजूद है। जिस प्रकार आग का स्वभाव गर्म होना तथा जल का स्वभाव शीतलता प्रदान करना है, उसी प्रकार भूतों का स्वभाव विश्व का निर्माण करना है। चार्वाक के इस मत को स्वभाववाद (Naturalism) कहा जाता है। । देवेन्द्रमुनि, कर्मविज्ञान, भाग 1, पृ. 306 (क) को करइ कंय्याणं, तिक्खत्तं बिहगमादिणं। विविहत्तं तु सहाओ, इदि सबंपि य सहाओत्ति।। गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) पृ. 883 (ख) कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं, विचित्रभावं मृग-पक्षिणां च। स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न, कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः।। सूत्रकृतांग टीका ' हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा, भारतीय दर्शन की रुपरेखा, पृ. 73 264 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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