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दिया । इस प्रकार सादृश्य का समर्थक स्वभाववाद को एकान्तरुप से न मानने पर कर्म के अस्तित्त्व की सिद्धि होती है तथा यह निश्चित हो जाता है । जगत् की विचित्रता का जो कारण है, वह कर्म है ।
सादृश्य का समर्थक स्वभाववाद एवं उसकी समीक्षा
विश्व की रचना एवं परिणाम रूप घटना की विचित्रता के कारणों के सम्बन्ध में कई वाद दृष्टि गोचर होते हैं। औपनिषदिक युग से पूर्वकाल में वैदिक मनीषियों ने इस विचित्रमयी सृष्टि, वैयक्तिक विभिन्नता, प्राणी की विभिन्न सुख - दुःख जनक अनुभूतियों तथा शुभाशुभ प्रवृत्तियों के कारण की खोज एक या अनेक वादों यथा देववाद, यज्ञवाद और ब्रह्मवाद में की। उनकी खोज का मुख्य आधार बाह्य था जिससे स्थायी समाधान नहीं मिला ।
इस विषय का उल्लेख सर्वप्रथम श्वेताश्वतरोपनिषद में मिलता है। वहां प्रश्न किया गया है कि इस विश्ववैचित्रय का क्या कारण है? कहां से हम सब उत्पन्न हुए है? किसके बल पर हम सब जीवित है? इन सबका उत्तर दिया है काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथ्वी आदि पंचभूत और पुरुष, ये जगत् के कारण हैं । उस समय तक के चिन्तक विश्ववैचित्र्य के कारण खोज कर रहे थे किन्तु निर्णय पर नहीं पहुंचे थे कि काल आदि में से कौनसा वाद माना जाए?'
स्वभाववाद
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स्वभाववाद के अनुसार जगत् में जो कुछ भी कार्य हो रहे है, वे सब पदार्थों के अपने-अपने स्वभावों से हो रहे है। इसमें काल-नियति, कर्म कोई कुछ नहीं कर सकता । आम की गुठली में ही आम का वृक्ष और फल होने का स्वभाव है, पर नीम की निम्बोली में आम का वृक्ष या फल होने का स्वभाव नहीं है। इक्षु में मधुरता करेले में कटुता क्यों होती है? इसमें उनका अपना-अपना स्वभाव का कारण है। सूर्य और अग्नि स्वभाव से गर्म है, चन्द्रमा शीतल है। क्या काल, नियति या कर्म इन्हें ठण्डा या गर्म करते है, इनका स्वभाव ही ऐसा है। बर्फ का स्वभाव ही शीतल है, क्या उसे कोई गर्म कर सकता है? वैसे ही जो जिस अवस्था में मरता है, वह उसी रूप में उत्पन्न होता है, क्योंकि जैसा
श्वेताश्वतरउपनिषद्, 1/1/2
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